Skip to main content

आचार्य विद्यानिवास मिश्र जन्म शतवार्षिकी पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में कला मनीषी श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय और प्रो करुणाशंकर उपाध्याय का हुआ सारस्वत सम्मान एवं पुस्तक विमोचन

भारतीय साहित्य में इकलौते अंतरानुशासिक व्यक्ति हैं आचार्य विद्यानिवास मिश्र - श्री उपाध्याय 

भारतीय संस्कृति, मूल्यों और लोक जीवन पर आधारित है आचार्य मिश्र की समीक्षा दृष्टि -  प्रो शर्मा

भारतीय इतिहास के नैरन्तर्य को जानने के लिए विद्यानिवास जी का साहित्य उपयोगी - प्रो उपाध्याय 

Ujjain | सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिंदी अध्ययनशाला में प्रख्यात साहित्य मनीषी आचार्य विद्यानिवास मिश्र जन्म शतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कला मनीषी एवं ललित निबन्धकार श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, इंदौर थे। सारस्वत अतिथि प्रोफेसर करुणाशंकर उपाध्याय विभागाध्यक्ष, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई एवं श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक,  नॉर्वे थे। अध्यक्षता कुलानुशासक प्रो शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने की। विशिष्ट अतिथि प्रो गीता नायक, प्रो जगदीश चंद्र शर्मा उज्जैन, डॉ सी एल शर्मा रतलाम ने अपने विचार व्यक्त किए। 

कला मनीषी श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय और प्रो करुणाशंकर उपाध्याय को अतिथियों द्वारा अंगवस्त्र, साहित्य एवं पुष्पमाला अर्पित कर उनका सारस्वत सम्मान किया गया। इस अवसर पर श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय द्वारा सम्पादित पुस्तक चयनित निबंध पंडित विद्यानिवास मिश्र का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम में प्रो जगदीश चंद्र शर्मा को भारत नॉर्वेजियन सूचना सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो द्वारा अंतरराष्ट्रीय प्रेमचंद सम्मान अर्पित किया गया। 

संगोष्ठी में ललित निबंधकार और कला मनीषी नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने अपने उद्बोधन में विद्यानिवास मिश्र के कला और साहित्य पर चिंतन करते हुए कहा कि मिश्र जी की एक छवि ललित निबंधकार की है और दूसरी छवि लोकविद् और तीसरी संस्कृतिविद् की है। भारतीय ज्ञान परंपरा अंतरानुशासन की परंपरा है और मिश्र जी पूरे हिंदी साहित्य में इकलौते अंतरानुशासनिक व्यक्ति है जिनमें साहित्य, कला और जीवन अनुस्यूत है। वे मानते थे कि ज्ञान की परिणति संवाद है बिना संवाद के ज्ञानी व्यक्ति अधूरा है। जब निजत्व की दीवार टूटती है तब मुक्ति संभव है। नवीन बनना महत्वपूर्ण नहीं चिर नवीन बने रहना महत्वपूर्ण है। साहित्य की परिक्रमा नहीं, अपितु साहित्य की यात्रा करनी चाहिए।

विभागाध्यक्ष एवं समालोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र की समीक्षा दृष्टि रचनात्मक और आस्वादपरक है। परम्परानिष्ठ समालोचकों में उनका स्थान अद्वितीय है। उनकी समीक्षा दृष्टि भारतीय संस्कृति, मूल्यों और लोक जीवन पर आधारित है। उन्होंने प्राचीन और आधुनिकता के समन्वय पर बल दिया। रीति विज्ञान ग्रन्थ में उन्होंने रीति और वृति जैसे प्राचीन साहित्यिक मानदंडों का समावेश करने के साथ पश्चिमी मानदंडों का समन्वय किया।

प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय, मुंबई ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत को समझने का सूत्र वैदिक मंत्रों में है। विद्यानिवास मिश्र जिस रोचकता के साथ लोक का वर्णन करते थे, उसी रोचकता और गहनता के साथ शास्त्रों का वर्णन करते थे। मिश्र जी ने तुलसीदास, सूरदास पर गहन चिंतन किया है। विद्यानिवास मिश्र ने भारतीय ज्ञान परंपरा को आत्मसात किया  था। यदि हमें भारतीय इतिहास के नैरन्तर्य को जानना है तो वह विद्यानिवास मिश्र, प्रसाद, अज्ञेय आदि के माध्यम से संभव हो सकता है।

सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, नॉर्वे ने कविता पाठ करते हुए  विद्यानिवास मिश्र के जन्मशताब्दी वर्ष पर उनका  स्मरण किया। 

प्रो. जगदीशचंद्र शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि जब भारतीय परम्परा के मूल से गहराई तक जुड़े व्यक्ति का नाम आता है तो वह विद्यानिवास मिश्र हैं। भारतीय परम्परा की  विलक्षण बात यह है कि वह वाक् केंद्रीय परंपरा है, इसे भाषा के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। यह दृष्टि और समझ मिश्र जी में थी।

कार्यक्रम में प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक का व्यक्तिचित्र विभाग को अर्पित किया गया। प्रो करुणाशंकर उपाध्याय ने जयशंकर प्रसाद महानता के आयाम एवं ऑपरेशन सिंदूर अनछुए पहलू पुस्तकें अर्पित कीं। प्रो पाराशर ने ट्रू मीडिया का प्रो शैलेन्द्र पाराशर विशेषांक अर्पित किया।


प्रारम्भ में वाग्देवी एवं मूर्धन्य रचनाकार पंडित विद्यानिवास मिश्र के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। आचार्य विद्यानिवास मिश्र जन्म शतवार्षिकी के अवसर पर ललित कला अध्ययनशाला के सहयोग से आयोजित इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रो हरिमोहन बुधौलिया, प्रो शैलेन्द्र पाराशर, प्रो बी के शर्मा, प्रो अरुण वर्मा, प्रो पिलकेन्द्र अरोरा, श्री प्रवीण गार्गव, राजेश सक्सेना, डॉ राजाराम रोमड़े, प्रज्ञा अवास्या, रतलाम आदि सहित अनेक साहित्यकार, शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।

संचालन शोधार्थी संगीता मिर्धा ने किया एवं आभार प्रदर्शन प्रो. गीता नायक ने किया।

Comments

मध्यप्रदेश समाचार

देश समाचार

Popular posts from this blog

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा की पूरी कहानी | Khatu Shyam ji | Jai Shree Shyam | Veer Barbarik Katha |

संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा ( स्कंद्पुराणोक्त - श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !! 'श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र'' एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ' का कर्तव्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है... वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा... आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार ने श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख लिया हैं.... आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं...

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पाठ और समीक्षाएँ | मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे : मध्यवर्गीय जीवन के बीच स्त्री पुरुष सम्बन्धों का रूपायन

  आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ |  Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म  8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में  हुआ। उन्होंने  पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी -  आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।   उनके उपन्यास और  कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं।  उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।  मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती ...

दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।। आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास। सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।। भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाट...