Skip to main content

आँवला नवमी का महत्त्व एवं उसका आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से संबंध

भूमिका

भारतवर्ष की सांस्कृतिक परंपरा में प्रकृति और स्वास्थ्य का अत्यंत गहन और आत्मीय संबंध रहा है। यहाँ प्रत्येक पर्व न केवल धार्मिक अनुष्ठान का प्रतीक है, बल्कि उसमें स्वास्थ्य, पर्यावरण, और अध्यात्म के गूढ़ संदेश छिपे हैं।

ऐसा ही एक महत्वपूर्ण पर्व है “आँवला नवमी” — जिसे कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन मनाया जाता है। इस दिन आँवला वृक्ष (आमलकी / Emblica officinalis) की पूजा की जाती है, जो न केवल धार्मिक दृष्टि से पवित्र है, बल्कि औषधीय दृष्टि से भी अनुपम है।

आँवला नवमी का पर्व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, स्वास्थ्य के प्रति सजगता और आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुपालन का सुंदर उदाहरण है।


धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व

पुराणों में वर्णित है कि जब भगवान विष्णु ने अमृत का सृजन किया, उसी समय आँवला वृक्ष का उद्भव हुआ। इसीलिए इसे अमृतफल कहा गया है। स्कन्द पुराण और पद्म पुराण में आँवला वृक्ष को भगवान विष्णु का प्रिय वृक्ष बताया गया है।

इस दिन भक्तजन आँवला वृक्ष के नीचे पूजा-अर्चना करते हैं, वृक्ष की परिक्रमा करते हैं, दीपक जलाते हैं और आँवले के फल का सेवन प्रसाद के रूप में करते हैं।

लोक आस्था के अनुसार, आँवला नवमी के दिन आँवले के वृक्ष की पूजा करने से गंगा स्नान के समान पुण्य प्राप्त होता है। महिलाएँ इस दिन उपवास रखकर परिवार की आरोग्यता और दीर्घायु की कामना करती हैं।

यह पर्व एक प्रकार से प्रकृति पूजन का भी प्रतीक है। वृक्षारोपण, जलसंरक्षण और हरित पर्यावरण की परंपरा इस दिन के माध्यम से जनमानस में दृढ़ होती है।


आँवला का आयुर्वेदिक महत्त्व

आयुर्वेद में आँवला को “दिव्य औषधि” और “श्रेष्ठ रसायन” कहा गया है। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भावप्रकाश निघण्टु तथा अष्टांग हृदय जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसके औषधीय गुणों का अत्यंत विस्तृत वर्णन मिलता है।


शास्त्रीय उल्लेख:

“आमलकी रसायनं श्रेष्ठं वयःस्थापनं परम।”

(चरक संहिता, चिकित्सा स्थान 1/1)

अर्थात् – आमलकी सर्वोत्तम रसायन है, जो यौवन को बनाये रखती है।


“त्रिदोषघ्ना च दोषेषु विशेषेण पित्तनाशिनी।”

(भावप्रकाश निघण्टु, आमलकी वर्णन)

अर्थात् – यह त्रिदोषों को संतुलित करती है, विशेषतः पित्त दोष का शमन करती है।


आयुर्वेदिक दृष्टि से गुणधर्म

आयुर्वेदिक गुण विवरण

रस (स्वाद) अम्ल, मधुर, कषाय

गुण (स्वभाव) लघु (हल्का), रुक्ष (शुष्क)

वीर्य (ऊर्जा) शीत (शीतल)

विपाक (पाचनोत्तर प्रभाव) मधुर

प्रभाव (विशेष कार्य) त्रिदोषशामक, रसायन, मेध्य, चक्षुष्य, दीर्घायुष्कर

आँवला शरीर के सभी धातुओं को पोषित करता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और रसायन (Rejuvenator) के रूप में शरीर को दीर्घायु और तेजस्वी बनाता है।


आँवला के औषधीय उपयोग (Medicinal Uses)

आयुर्वेद में आँवले का प्रयोग अनेक रोगों में औषधि के रूप में किया जाता है। नीचे इसके प्रमुख औषधीय उपयोग दिए गए हैं:

1. नेत्ररोगों में लाभकारी

आँवला को चक्षुष्य (नेत्रों के लिए हितकारी) कहा गया है।

यह नेत्रों की ज्योति बढ़ाता है और नेत्रज विकारों में उपयोगी है।

“आमलकी चक्षुष्यं रसायनं च।” (सुश्रुत संहिता)

2. यकृत एवं पाचन क्रिया में उपयोगी

आँवला दीपन-पाचन है, अर्थात् भूख को बढ़ाता है, पाचन में सहायता करता है और यकृत (लिवर) को सुदृढ़ बनाता है।

यह अम्लपित्त, अजीर्ण, और अतिसार जैसे विकारों में लाभकारी है।

3. प्रतिरोधक क्षमता एवं दीर्घायु

आँवला रसायन वर्ग की औषधि है। यह ओजवर्धक (Immunity enhancer) है तथा वृद्धावस्था की प्रक्रिया को धीमा करता है।

नित्य सेवन से शरीर में वीर्य, बल, स्मृति और तेज की वृद्धि होती है।

4. त्वचा एवं केश संबंधी विकारों में उपयोगी

आँवला कुष्ठनाशक (Skin purifier) तथा केश्य (बालों के लिए उपयोगी) है।

यह त्वचा को कोमल, स्वच्छ और चमकदार बनाता है तथा बालों को झड़ने या पकने से रोकता है।

“केश्यं रक्तपित्तकुष्ठघ्नं तृष्णाश्वासकासनुत्।” (भावप्रकाश निघण्टु)

5. मूत्ररोग एवं मधुमेह में उपयोगी

आँवला मूत्रवर्धक है और मधुमेह (प्रमेह) रोग में उपयोगी है।

यह मूत्रमार्ग की शुद्धि करता है और गुर्दों के कार्य में सुधार लाता है।

6. श्वसन संबंधी रोगों में लाभकारी

यह कास (खाँसी), श्वास (दमा) और ज्वर में लाभकारी है।

त्रिफला चूर्ण (आँवला, हरड़, बहेड़ा) का सेवन श्वसन तंत्र को शुद्ध करता है और रोग प्रतिरोधकता बढ़ाता है।

7. मानसिक स्वास्थ्य में उपयोगी

आँवला मेध्य रसायन है – यह मस्तिष्क की कार्यक्षमता, स्मरणशक्ति, और मानसिक स्थिरता बढ़ाता है।


ऋतुचक्र और आँवला नवमी का स्वास्थ्य से संबंध

आँवला नवमी हेमंत ऋतु में आती है, जब शरीर की जठराग्नि (पाचन शक्ति) सर्वाधिक प्रबल होती है।

इस ऋतु में रसायन सेवन को अत्यंत हितकारी माना गया है।

आँवले का सेवन इस समय शरीर में जमा पित्त दोष को संतुलित करता है और रक्त, त्वचा, तथा यकृत को शुद्ध रखता है।

इस प्रकार, आँवला नवमी के अवसर पर आँवला सेवन का विधान आयुर्वेदिक ऋतुचर्या सिद्धांत के अनुरूप है।

यह शरीर को भीतर से शुद्ध और सुदृढ़ बनाता है।


आधुनिक चिकित्सा में आँवले का महत्त्व

आधुनिक विज्ञान के अनुसार, आँवला विटामिन ‘C’ का सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक स्रोत है।

इसमें एंटीऑक्सीडेंट, फ्लेवोनॉयड्स, और पॉलीफेनॉल्स प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो शरीर की कोशिकाओं को मुक्त कणों से होने वाली क्षति से बचाते हैं।

यह कोलेस्ट्रॉल को कम करता है, ब्लड शुगर को नियंत्रित रखता है और हृदय रोगों में सहायक है।


पर्यावरणीय एवं सामाजिक महत्त्व

आँवला नवमी केवल पूजा या धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण का जनआंदोलन है।

आँवला वृक्ष वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाता है, वायु को शुद्ध करता है और भूमि को क्षरण से बचाता है।

इस दिन वृक्षारोपण की परंपरा समाज को प्रकृति से पुनः जोड़ने का माध्यम बनती है।


निष्कर्ष

आँवला नवमी का पर्व भारतीय जीवन दर्शन की समग्रता का प्रतीक है — जहाँ धर्म, विज्ञान, और स्वास्थ्य एक ही सूत्र में जुड़े हैं।

आँवला, जो भगवान विष्णु का प्रतीक है, वही आयुर्वेद में अमृतफल कहलाता है।

इस पर्व का वास्तविक उद्देश्य है —

मनुष्य को यह सिखाना कि प्रकृति की पूजा, औषधियों का सेवन और ऋतु के अनुरूप आहार-विहार ही दीर्घायु और आरोग्य का मूलमंत्र है।

“स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।”

(चरक संहिता, सूत्र स्थान 30/26)

अतः आँवला नवमी केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि एक आयुर्वेदिक स्वास्थ्य पर्व है — जो हमें शरीर, मन और आत्मा की समरसता बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

डॉ प्रकाश जोशी (Assist. Proffeser)

डॉ शिवानी रघुवंशी (M.D अध्येता)

Comments

मध्यप्रदेश समाचार

देश समाचार

Popular posts from this blog

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा की पूरी कहानी | Khatu Shyam ji | Jai Shree Shyam | Veer Barbarik Katha |

संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा ( स्कंद्पुराणोक्त - श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !! 'श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र'' एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ' का कर्तव्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है... वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा... आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार ने श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख लिया हैं.... आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं...

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पाठ और समीक्षाएँ | मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे : मध्यवर्गीय जीवन के बीच स्त्री पुरुष सम्बन्धों का रूपायन

  आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ |  Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म  8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में  हुआ। उन्होंने  पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी -  आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।   उनके उपन्यास और  कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं।  उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।  मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती ...

दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।। आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास। सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।। भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाट...