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शरद पूर्णिमा: श्वास रोग (दमा) के लिए वरदान, आयुर्वेदिक चिकित्सा में विशेष महत्व


औषधियुक्त खीर व कर्णवेधन से मिलता है राहत का संजीवनी उपाय

दमादम के साथ जाता है — यह एक प्रचलित लोकोक्ति है जो श्वास रोग (दमा) के लिए कही जाती है। काफी हद तक यह सही भी है, लेकिन उचित आहार-विहार एवं युक्तिपूर्वक की गई चिकित्सा से इसे ठीक भी किया जा सकता है। आयुर्वेद में उचित आहार-विहार के लिए ऋतुचर्या का विशेष विधान है। ऋषियों ने मानव जगत के हित में, वैज्ञानिक ढंग से स्वास्थ्य के नियमों को ध्यान में रखते हुए काल विभाजन किया है। ऋतु के अनुसार उचित आहार-विहार करने एवं अनुचित आहार-विहार से बचने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।

अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है — "Prevention is better than cure", अर्थात बीमार होने के बाद इलाज कराने से अच्छा है कि पहले ही बचाव किया जाए। आयुर्वेद में बताए गए नियमों का पालन करके अनेक रोगों से बचा जा सकता है। इन्हीं ऋतुओं में शिशिर, बसंत, ग्रीष्म, वर्षा एवं शरद ऋतु का वर्णन है। इनमें शरद ऋतु में आने वाली शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है, खासकर श्वास रोग (दमा) के उपचार में।

भारतीय कालगणना के अनुसार शरद ऋतु आश्विन व कार्तिक माह में आती है, जो अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सितंबर, अक्टूबर एवं नवंबर में होती है। इस समय सूर्यबल क्षीण और चन्द्रबल पूर्ण होता है। इस ऋतु में पित्त का प्रकोप और वात का शमन होता है, जिससे श्वास रोग से ग्रसित रोगियों के लिए यह काल विशेष रूप से लाभदायक होता है।

श्वास रोग (दमा) एक एलर्जिक रोग है, जिसमें फेफड़ों को वायु पहुँचाने वाली नलियाँ जो छोटी-छोटी मांसपेशियों से ढँकी होती हैं, उनमें आक्षेप होने से साँस लेने में तकलीफ होती है और गले से आवाज़ आने लगती है। यह रोग उस स्थिति में भी तकलीफ देता है जब व्यक्ति विश्राम की स्थिति में होता है। इसका मुख्य कारण एलर्जी होती है, जो शरीर की निर्दोष पदार्थों के प्रति की गई प्रतिक्रिया है। अधिकतर लोग धूल, फफूंद, मांस, मछली आदि के संपर्क में आने से इस बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं।

श्वास रोग के कारण और शरद पूर्णिमा पर होने वाला विशेष उपचार

श्वास रोग के प्रमुख कारणों में जलन पैदा करने वाले पदार्थ (विदाही) जैसे मिर्च, सरसों, उड़द, सूअर मांस, कब्जकारक एवं कफकारक खाद्य पदार्थ, शीतल पेय, ठंडा भोजन, ठंडे स्थानों में रहना, धूल-धुएँ का संपर्क, अधिक व्यायाम, शक्ति से अधिक श्रम, बोझ उठाना, अधिक पैदल चलना, मल-मूत्र आदि वेगों को रोकना, उपवास और अधिक व्रत करना शामिल हैं। जब शरीर में वायु कफ से मिल जाती है और प्राण, अन्न एवं जल के मार्गों को रोक देती है, तो श्वास रोग उत्पन्न होता है। इस स्थिति में वायु अपने मार्ग में कफ के कारण अवरुद्ध होकर इधर-उधर घूम नहीं सकती और श्वास रोग उत्पन्न होता है।

शरद पूर्णिमा पर विशेष चिकित्सा उपाय

वैदिक साहित्यों में चन्द्रमा को औषधियों का अधिपति कहा गया है। शरद ऋतु में चन्द्रबल पूर्ण होता है। शरद पूर्णिमा के दिन श्वास रोग के इलाज के लिए औषधियुक्त खीर के सेवन का विशेष विधान है। इस दिन चन्द्रमा की शीतल किरणें औषधियों को अधिक वीर्यवान बना देती हैं। इस औषधियुक्त खीर का सेवन रोगी को कराया जाता है, फिर कर्णवेधन किया जाता है एवं उसे सारी रात जागरण कराना होता है।

शास्त्रों में यह वर्णित है कि इस प्रयोग से एक ही रात में दमे का रोग नष्ट हो सकता है। यह आयुर्वेदिक पद्धति की एक अनूठी विधा है जिसमें चन्द्रमा की रोशनी में औषधियुक्त खीर का सेवन कराकर रोगी को चमत्कारी लाभ मिलता है। बहुतायत से यह देखा गया है कि इस दिन इस विशेष प्रयोग से कई रोगी स्वस्थ हो जाते हैं, जिससे "दम के साथ दमा जाता है" जैसी लोकोक्ति पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

कर्णवेधन का वैज्ञानिक महत्व

मानव शरीर की विभिन्न क्रियाएँ मस्तिष्क द्वारा संचालित होती हैं और मस्तिष्क इन्हें नाड़ियों के माध्यम से नियंत्रित करता है। इनमें प्राणदा नाड़ी (Vagus Nerve) शरीर के विभिन्न अंगों के संचालन में सहायक होती है। इसकी एक शाखा लेरिंग्स, ट्रेकिया, ब्रोंकाई तथा पल्मोनरी प्लेक्सस में ब्रोंकियों के संकुचन में कार्य करती है। यह शाखा बाह्य कर्ण तक जाती है और वहाँ से संवेदना ग्रहण करती है।

इस प्रकार जब बाह्य कर्ण का छेदन (कर्णवेधन) किया जाता है, तो वह नाड़ी के माध्यम से श्वसन प्रणाली की संवेदनशीलता को संतुलित करता है और श्वास रोग में राहत दिलाता है।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया — औषधियुक्त खीर पान, कर्णवेधन और जागरण — को शरद पूर्णिमा की विशेष रात्रि में सम्पन्न करना दमा रोग के लिए आयुर्वेद में एक अत्यंत प्रभावी उपाय माना गया है। यह भारत की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली की वैज्ञानिकता और प्रभावशीलता को दर्शाता है।

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