भारत की लोक और जनजातीय भाषाएँ, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण और व्याख्या पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न
निजता के वृत्त को तोड़ कर जो समाज में विलीन हो, वह लोक है – कला मनीषी श्री उपाध्याय
संजा लोकोत्सव 2025 के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय लोक साहित्य महोत्सव में पद्मश्री भेरूसिंह चौहान लोक गंधर्व उपाधि से सम्मानित
Ujjain | हिंदी पखवाड़े के अवसर पर सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय उज्जैन एवं प्रतिष्ठित संस्था प्रतिकल्पा सांस्कृतिक संस्था, उज्जैन द्वारा संजा लोकोत्सव 2025 के अंतर्गत दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश एवं पर्यटन विभाग, मध्यप्रदेश के सहयोग से आयोजित किया गया। दूसरे दिन रविवार को अंतरराष्ट्रीय लोक साहित्य महोत्सव के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में भारत की लोक और जनजातीय भाषाएँ, साहित्य और संस्कृति : संरक्षण, व्याख्या और प्रासंगिकता पर तीन सत्रों में विद्वानों के व्याख्यान और शोध पत्रों की प्रस्तुति हुईं। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वरिष्ठ कला मनीषी श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय इंदौर थे। विभिन्न सत्रों में नेपाल से आए विद्वान डॉ अंजनीकुमार झा, पद्मश्री कालूराम बामनिया, डॉ पूरन सहगल, डॉ रेखाकुमारी राय, जनकपुर नेपाल, प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, प्रो जगदीश चंद्र शर्मा, डॉ श्रीनिवास शुक्ल सरस, सीधी, डॉ आर सी ठाकुर महिदपुर, डॉ ध्रुवेंद्रसिंह जोधा भोपाल, डॉ. अंतरा करवड़े, एवं वसुधा गाडगिल, इंदौर, मोना कौशिक बल्गारिया आदि ने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर पद्मश्री श्री भेरूसिंह चौहान महू को उनके अविस्मरणीय अवदान के लिए उन्हें प्रशस्ति पत्र, अंगवस्त्र एवं श्रीफल अर्पित कर लोक गंधर्व उपाधि से सम्मानित किया गया।
मुख्य अतिथि श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने अपने उद्बोधन में लोकगीत और लोकसंकृति पर बात करते हुए कहा कि लोक स्वाभाविक है। लोक और अभिजात्य में अंतर यही होता है कि जहाँ अभिजात्य का उपवन समाप्त होता है वहां लोक की पगडंडी प्रारंभ होती है। लोक अपरिभाषेय होता है। जिसने निजता के वृत्त को तोड़ दिया और समाज में विलीन हो गया वह लोक है।
डॉ. अजयकुमार झा नेपाल, ने अपने उद्बोधन में कहा कि मैथिली, भोजपुरी, अंगिका और मगही इन सब को जोड़ने वाली भाषा है बज्जिका। नेपाल में हम व्यक्तिगत रूप से हिंदी को बोलने और उसके प्रचार, प्रसार के किए प्रयास करते हैं।
लोकसंस्कृति के विद्वान डॉ. पूरन सहगल मनासा ने हिंदी भाषा पर बात करते हुए उसके अन्य देशों पर पड़ रहे हिंदी के प्रभावों पर चर्चा की और बताया कि लोक संस्कृति के माध्यम से हमारी बोलियाँ समृद्ध होती हैं।
डॉ रेखाकुमारी राय नेपाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमें लोक गीतों और संस्कृति को बचाए रखना चाहिए और उसके संरक्षण के लिए उपाय करना चाहिए।
मुद्राशास्त्र के विशेषज्ञ डॉ. आर. सी. ठाकुर महिदपुर ने अपने उद्बोधन में बताया कि प्राचीनकालीन सिक्को और उन पर लिखी गई लिपि में विभिन्न प्रांतों और देशों के प्रतिनिधि लोगों द्वारा देवनागरी के प्रयोग किए जाते थे। और देवनागरी और हिंदी की यात्रा बहुत लंबी और प्रशस्त रही है।
सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि लोक का अध्ययन और व्याख्या समष्टि चेतना की व्याख्या है। समष्टि का अर्थ है हम - सब यानी वह हम सब की व्याख्या है। लोक साहित्य की तटस्थ होकर व्याख्या करना सम्भव नहीं है। जब परायेपन के साथ विदेशियों ने भारतीय लोक एवं जनजातीय साहित्य की व्याख्या की, उनकी सीमा उभरी।
डॉ श्रीनिवास शुक्ल सरस सीधी ने अपने उद्बोधन में बघेली जनजातीय संस्कृति, लोक भाषा और नारी संवेदना पर चर्चा की।
अतिथियों का स्वागत संस्था अध्यक्ष डॉ शिव चौरसिया, निदेशक डॉ पल्लवी किशन, सचिव कुमार किशन ने किया। विभिन्न तकनीकी सत्रों में विशेषज्ञों, शोधार्थी आदि ने शोध पत्र प्रस्तुत किए। दस श्रेष्ठ शोधपत्रों के शोधकर्ताओं को सम्मानित किया गया, जिनमें डॉ. नरेंद्रसिंह पवार, रतलाम, सरोज पाठक प्रकृति दिल्ली, अजय सूर्यवंशी, डॉ. ललितकुमार सिंह, सुजल जायसवाल, निधि त्रिपाठी, राकेश उमरचा, किरणबाला कराड़ा, शैलजा, और कारूलाल जमडा जावरा सम्मिलित थे। तीन सत्रों में देश और विदेश के अनेक शोधकर्ताओं ने शोधपत्र वाचन किया। संगोष्ठी के पूर्व अतिथियों द्वारा प्रतिभागियों द्वारा बनाई गई संजा एवं मांडना कृतियों का अवलोकन किया गया।
निर्गुणी गायक दयाराम सारोलिया द्वारा लोक गीत प्रस्तुति की गई। कार्यक्रम का संचालन डॉ श्रीराम सौराष्ट्रीय और पूजा परमार ने किया और आभार प्रदर्शन समन्वयक प्रो. जगदीशचंद्र शर्मा ने किया।
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