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बी-डे: मधुमक्खियाँ—प्रकृति की पोषक मित्र

शहद: लोकल से ग्लोबल तक की यात्रा

उज्जैन। अंतर्राष्ट्रीय मधुमक्खी दिवस के अवसर पर विक्रम विश्वविद्यालय में आयोजित परिसंवाद में कुलगुरु प्रो. डॉ. अर्पण भारद्वाज ने अपने संदेश में कहा कि मधुमक्खियाँ न केवल पर्यावरणीय स्वास्थ्य की सटीक सूचक हैं, बल्कि शहद जैसे औषधीय अमृत के निर्माण में भी सहायक हैं। उन्होंने कहा कि "शहद को लोकल से ग्लोबल तक ले जाने के लिए हमें व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।" मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं, जिन्हें सही दिशा देकर वैश्विक स्तर पर निर्यात और रोजगार का साधन बनाया जा सकता है।

प्रो. भारद्वाज ने जानकारी दी कि मधुमक्खियों की दो प्रमुख प्रजातियाँ—एपीस सेराना और एपीस मेलिफेरा—भारत में पाई जाती हैं। एपीस सेराना की एक कॉलोनी वर्षभर में लगभग 6 से 10 किलो शहद उत्पादन करती है, जबकि एपीस मेलिफेरा एक कॉलोनी से 30 से 40 किलो तक शहद उत्पन्न करती है। इसीलिए इनका उपयोग बागवानी व परागण में अधिक किया जाता है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित मधुमक्खी दिवस और सतत विकास लक्ष्यों के आपसी संबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इन जीवों की रक्षा करना हमारी खाद्य सुरक्षा से सीधा जुड़ा विषय है।

परागणकर्ता: पारिस्थितिकी तंत्र के रक्षक

प्रबंध संकायाध्यक्ष प्रो. डॉ. कामरान सुल्तान (कार्य परिषद सदस्य, विक्रम विश्वविद्यालय) ने कहा कि मधुमक्खी पालन को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय उद्यानिकी संस्थाओं को सक्रिय होना चाहिए। इच्छुक व्यक्तियों को मधुमक्खी पालन, मड हाइब निर्माण तथा तकनीकी सहायता के लिए प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है।

कार्यक्रम के सूत्रधार, पं. जवाहरलाल नेहरू व्यवसाय प्रबंध संस्थान के निदेशक प्रो. डॉ. धर्मेंद्र मेहता ने बताया कि लगभग 2,00,000 से अधिक परागण प्रजातियाँ, जिनमें मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, पक्षी और चमगादड़ शामिल हैं, प्रकृति को संतुलित और समृद्ध बनाए रखने में सहायक हैं। इस वर्ष के बी-डे का विषय “प्रकृति से प्रेरित होकर हम सभी का पोषण करने वाली मधुमक्खियाँ” है, जो कृषि खाद्य प्रणालियों और पारिस्थितिकी तंत्र में मधुमक्खियों की भूमिका को रेखांकित करता है।

उन्होंने बताया कि असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और आवास की कमी परागणकर्ताओं के लिए बड़े खतरे हैं, जिनसे खाद्य उत्पादन संकट में पड़ सकता है। कार्यक्रम में विद्यार्थियों—दीपांशु, युवराजसिंह, ट्विंकल व्यास सहित अन्य ने विचार व्यक्त किए कि परागण कृषि खाद्य प्रणालियों की रीढ़ है और यह विश्व की 75% फसलों जैसे फल, सब्जियाँ, बीज और मेवे के उत्पादन में सहायक है।

विद्यार्थियों ने यह भी बताया कि परागणकर्ता न केवल फसल की गुणवत्ता बढ़ाते हैं, बल्कि पर्यावरणीय स्वास्थ्य के भी संकेतक होते हैं। इनकी सुरक्षा से कीट नियंत्रण, मिट्टी की उर्वरता तथा वायु एवं जल शुद्धिकरण जैसी पारिस्थितिकी सेवाओं में भी सुधार होता है। कृषि पारिस्थितिकी, कृषि वानिकी और एकीकृत कीट प्रबंधन जैसी प्रकृति-अनुकूल पद्धतियाँ परागणकर्ताओं के संरक्षण में मददगार साबित हो सकती हैं।

विश्वभर में लाखों लोग मधुमक्खी पालन से जुड़े हैं। व्यावसायिक फसलों की बढ़ती खेती को देखते हुए भविष्य में मधुमक्खियों की माँग और बढ़ेगी। इसके लिए देसी मधुमक्खियों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक हो गया है, जिससे टिकाऊ कृषि खाद्य प्रणाली की नींव मजबूत हो सके।

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