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विक्रम विश्वविद्यालय में हुआ अनुवाद महोत्सव का आयोजन, वरिष्ठ अनुवादक एवं साहित्यकार प्रो आरसु एवं डॉ अजयकुमार का हुआ सारस्वत सम्मान



  • भावात्मक एकता के साथ अजनबियों को परिचित बनाता है अनुवाद - प्रो आरसु 
  • संस्कृति को व्यक्त करने वाले शब्दों के अनुवाद के बजाय मूल रूप को अपनाना जरूरी – डॉ अजय कुमार
  • राष्ट्रीय संगोष्ठी में हुआ राष्ट्रीय - भावात्मक एकता में अनुवाद की भूमिका पर व्यापक मंथन

उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन एवं भाषा समन्वय वेदी, केरल के संयुक्त तत्वावधान में वाग्देवी भवन में दिनांक 17 फरवरी, 2025 सोमवार को मध्याह्न में अनुवाद महोत्सव एवं राष्ट्रीय भावात्मक एकता में अनुवाद की भूमिका पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार एवं अनुवादक प्रो आरसु, कालीकट एवं डॉ डॉ के. सी. अजयकुमार थे। अध्यक्षता कुलगुरु डॉ अर्पण भारद्वाज ने की। विशिष्ट अतिथि डॉ. सी. जे. प्रसन्न कुमारी, तिरुअनंतपुरम, कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ पुष्पेंद्र दुबे, इंदौर, श्रीराम दवे, डॉ अनीश सिरिएक, पाला, प्रो गीता नायक, प्रो जगदीश चंद्र शर्मा आदि ने संगोष्ठी विषय के विभिन्न पक्षों पर व्याख्यान दिए।

मुख्य अतिथि डॉ. आरसु ने अपने उद्बोधन में अनुवाद और अनुवादक पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हम अजनबी भौगोलिक दृष्टि से हैं, दिल की दृष्टि से नहीं। भारतीय भावात्मक एकता को मजबूत करने में अनुवादकों का बहुत बड़ा योगदान है। भारत शब्द में तीन वर्ण है जिनका अर्थ भाव, राग और ताल से लिया जाए तो भारत के विभिन्न भागों में रचे जा रहे साहित्य को समझने और सही मायने में जोड़ने के लिए अनुवाद की जरूरत पड़ती है। अनुवाद अजनबियों को परिचित बनाता है। अनुवादक का मूल कर्तव्य है  महत्वपूर्ण रचनाओं, साहित्य को अन्य लोगों से परिचय करवाना। हमारे मानस के सिंहासन पर अन्य विद्वानों की रचनाओं को अनुवादक के माध्यम से ही आरूढ़ किया जा सकता है। जो विभिन्न भाषाओं के महात्मा हैं वे  समान विचार रखते हैं और इनके विचारों को समझने का कार्य सिर्फ अनुवादक के माध्यम से ही किया जा सकता है। रास्ता रोकने वाले बहुत लोग होते है लेकिन रास्ता खोलने वाला अनुवादक ही होता है। अनुवादक पराई संपत्ति के पहरेदार होते हैं, वे अनुगामी नहीं बल्कि सहगामी होते हैं। अनुवादक विजय पताका फेराने वाले नहीं, वे तो तीर्थयात्रा करने वाले होते हैं।

डॉ के. सी. अजयकुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि जहां - जहां व्यक्तिवाचक  संज्ञा का प्रयोग होता है वहां हमें प्रयास करना चाहिए कि हम हमेशा देवनागरी लिपि का प्रयोग करें। कई ऐसे शब्द हैं जिनका अनुवाद करना संभव नहीं है जैसे धर्म, गुरु आदि उन शब्दों को हमें अनुवाद करते समय उनका उसी रूप में प्रयोग कर लेना चाहिए। ये शब्द हमारी संस्कृति को व्यक्त करने वाले हैं। देवनागरी लिपि को हमें संजोकर रखना चाहिए और अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए। जब भी हम कंप्यूटर इत्यादि का प्रयोग करे तो कीबोर्ड रोमन के साथ - साथ देवनागरी में हो ऐसे की बोर्ड का प्रयोग करना चाहिए।

अध्यक्षता करते हुए कुलगुरु प्रो. अर्पण भारद्वाज ने अतिथियों का स्वागत, अभिनंदन करते हुए अच्छी पुस्तकों के अनुवाद न होने कारण आने वाली कठिनाइयों पर बात की। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति एक भाषा से अधिक भाषा को नहीं जानता वह अन्य क्षेत्रों के ज्ञान से वंचित रह जाता है। इसलिए अनुवाद का होना अत्यंत आवश्यक है। हमें हिन्दी भाषा के अलावा भी अन्य भाषाएं सीखनी, पढ़नी चाहिए। पुस्तकालयों में विभिन्न भाषा की पुस्तकों को समावेश करना चाहिए जिससे बाहर से आने वाले छात्रों के लिए भी पुस्तकें उपलब्ध हों।

विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि सहस्राब्दियों से अनुवाद इस देश की सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता को आधार दे रहा है। देश के विभिन्न भागों में लोक जागरण एवं स्वाधीनता संग्राम में अनुवाद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अनुवाद विश्व बंधुत्व की अवधारणा को मजबूत बनाता है। भाषा समाज और संस्कृति की रीढ़ है। इस दृष्टि से अनुवाद समाज में एकता के लिए अत्यंत आवश्यक है। विविधताओं को जानने के लिए व्यक्ति को अनुवाद की सहायता लेनी होती है, जिससे एक भाषा में उपलब्ध ज्ञान और भावों को दूसरी भाषा में व्यक्त किया जा सके।

डॉ. सी. जे. प्रसन्नकुमारी, कालीकट ने अपने उद्बोधन में कहा कि शंकराचार्य के बाद केरल के दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति कुलशेखर आलवार हैं। उनके मुकुंदमाला ग्रन्थ की पंक्तियों का दक्षिण और उत्तर भारत के प्रत्येक वैष्णव मंदिरों में जाप किया जाता है।

डॉ अनीश सिरिएक, पाला ने मध्यप्रदेश की प्रतिनिधि कहानियों के मलयालम अनुवाद पर केंद्रित पुस्तक का परिचय दिया। 

डॉ पुष्पेंद्र दुबे इंदौर ने अपने उद्बोधन में कहा कि जब हम एक ही विषय को अलग अलग भाषा और दृष्टिकोण से समझते हैं तो हम उसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं और यह कार्य सिर्फ अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। अनुवाद के लिए भावना और मन आवश्यक है। जब तक हम किसी रचना के भाव तक नहीं पहुंचते तब तक हम उसका सही अनुवाद नहीं कर पाते।

वरिष्ठ साहित्यकार श्रीराम दवे ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत को आंचलिक भाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है और विभिन्न भाषा के मध्य अनुवाद होने से हमें यह सुविधा उपलब्ध हो पाती है। अनुवादक रचना की पुनर्रचना करता है।

प्रो. गीता नायक ने अपने उद्बोधन में अनुवाद पर बात करते हुए कहा कि जो हमारे विभागों, कार्यालयों, घरों आदि की नाम पट्टिका या सूचना पट्टिका हिंदी में होना चाहिए। छात्रों को यह संकल्प लेना चाहिए कि वे अपनी मातृभाषा का अधिकाधिक प्रयोग करें।

महोत्सव में अनुवाद एवं साहित्य सृजन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए वरिष्ठ अनुवादक एवं साहित्यकार प्रो आरसु एवं डॉ अजयकुमार को श्री महाकालेश्वर का चित्र, अंगवस्त्र एवं साहित्य भेंट कर उनका सारस्वत सम्मान किया गया। कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा को भाषा समन्वय वेदी, केरल की ओर से अंगवस्त्र, प्रतीक एवं साहित्य भेंट कर उनका सारस्वत सम्मान साहित्यकार प्रोफेसर आर सुरेंद्रन, कालीकट एवं डॉ के सी अजय कुमार ने किया। डॉ अजयकुमार, डॉक्टर श्रीजा प्रमोद, डॉ के पी सुधीरा, डॉ षीना ईप्पन द्वारा मूल एवं अनूदित पुस्तकें अर्पित की गईं। इस अवसर पर विश्वविद्यालय में केरल से आए अठारह साहित्यकारों एवं अनुवादकों के समूह को प्रशस्ति पत्र एवं पुष्पमाल अर्पित कर उनका सम्मान अतिथियों द्वारा किया गया।

कार्यक्रम में अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षरवार्ता एवं कृष्ण बसन्ती का लोकार्पण अतिथियों द्वारा किया गया। विमोचन सम्पादक द्वय प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं डॉ मोहन बैरागी ने करवाया। 

विक्रम विश्वविद्यालय की हिंदी अध्ययनशाला, ललित कला अध्ययनशाला एवं पत्रकारिता और जनसंचार अध्ययनशाला द्वारा आयोजित इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्यकारों, अनुवादकों, शिक्षकों, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों ने सक्रिय सहभागिता की।

संचालन शोधार्थी पूजा परमार ने किया और आभार प्रदर्शन डॉ. मोहन बैरागी ने व्यक्त किया।

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