Skip to main content

देश विदेश के अनेक विद्वानों और शोधकर्ताओं ने भारतीय लोक और जनजातीय भाषा, साहित्य एवं संस्कृति : विविध परम्पराएँ, नवाचार और विधाएँ पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में विचार व्यक्त किए

  • जीवन में प्रकाशमान है लोक, जिसकी अनेक अन्तर्धाराएँ हमें समृद्ध करती हैं – पद्मश्री डॉ राजपुरोहित
  • सामाजिक गतिविधियों में सबकी साझेदारी लोक संस्कृति का आदर्श है – डॉ सहगल
  • सामूहिकता और लोक कल्याण का भाव लोक संस्कृति की शक्ति है – डॉ परमार 
  • देश विदेश के अनेक विद्वानों और शोधकर्ताओं ने भारतीय लोक और जनजातीय भाषा, साहित्य एवं संस्कृति : विविध परम्पराएँ, नवाचार और विधाएँ पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में विचार व्यक्त किए
  • संजा लोकोत्सव 2024 के अंतर्गत हुई अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी

प्रतिकल्पा सांस्कृतिक संस्था, उज्जैन द्वारा प्रतिवर्षानुसार आयोजित संजा लोकोत्सव  संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली एवं संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश शासन के सहयोग से आयोजित किया जा रहा है। इस अवसर पर अंतरराष्ट्रीय अन्तरनुशासनिक संगोष्ठी 22 सितम्बर, रविवार को  कालिदास संस्कृत अकादमी उज्जैन में सम्पन्न हुई। भारतीय लोक और जनजातीय भाषा, साहित्य एवं संस्कृति : विविध परम्पराएँ, नवाचार और विधाएँ विषय पर केंद्रित इस संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता पद्मश्री डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित ने की। मुख्य अतिथि ऑस्लो नॉर्वे के श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, डॉ पूरन सहगल, मनासा, डॉ मीरा सिंह, यूएसए, डॉ बहादुरसिंह परमार, छतरपुर, कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, प्रो जगदीश चंद्र शर्मा, डॉ ललित सिंह, नई दिल्ली आदि ने व्याख्यान दिए। 

पद्मश्री डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित ने अध्यक्षता करते हुए कहा कि लोक अत्यंत व्यापक है। जो जीवन में प्रकाशमान है वह लोक है। लोक की अनेक अन्तर्धाराएँ हैं। वेद परिष्कृत हैं, लेकिन उनमें भी लोक भाषाओं के अनेक शब्द मिलते हैं। आज लोक संस्कृति पर व्यापक अनुसन्धान की आवश्यकता है।  

उद्घाटन समारोह के विशिष्ट अतिथि डॉ बहादुरसिंह परमार ने कहा कि भारतीय लोक बहुत व्यापक और अपार है जिसमें विविध छवियां हैं। लोक की अनुभूति जब लोक भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, तो लोक साहित्य सृजित होता है। लोक के सुख दुःख लयात्मक ढंग से लोककंठ से जब फूटता है तो लोक गीत कहलाने लगते हैं। लोक साहित्य और संस्कृति में सामूहिकता और लोक कल्याण का भाव निहित होता है, जो उनकी शक्ति है। आज के तकनीकी युग में आदमी एकाकी होता जा रहा है, उसे लोक की सामूहिकता से प्रेरणा लेकर जीवंत होना चाहिए। लोक आदर्शों से लोक आख्यान बनते हैं। उन्होंने बुंदेलखंड के लोक देवता हरदौल का जिक्र कर लोक देवत्व की प्रक्रिया पर चर्चा की।

प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेश चंद्र शुक्ल ओस्लो नॉर्वे ने कहा कि स्केंडनेवियन देशों में प्राप्त अनेक लोक मान्यताओं और विश्वासों का भारतीय लोक संस्कृति से साम्य देखा जा सकता है।      


डॉ पूरन सहगल, मनासा ने कहा कि जनजातीय संस्कृति में सामूहिकता की भावना दिखाई देती है, सामाजिक गतिविधियों में सबकी साझेदारी उसका आदर्श है। संजा केवल चित्रांकन नहीं है वह किशोरियों के जीवन की पाठशाला है। लोक साहित्य में अमूल्य रत्न विद्यमान हैं, जिन्हें ग्रहण करने के लिए सभी को तैयार होना होना।    

यूएसए की विदुषी डॉ मीरासिंह ने कहा कि संस्कारों से जुड़े लोकगीत नई पीढ़ी को सार्थक दिशा देते हैं।  

मुख्य समन्वयक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि लोक एवं जनजातीय साहित्य में हृदय का स्पंदन है। वेद और पुराणों से लेकर लोक कवियों की वाणी में लोक संस्कृति के अनेक आयामों का प्रतिफलन हुआ है।  दुनिया की प्रायः सभी संस्कृतियों की अपनी लोककथाएँ होती हैं, जिनमें उनके जीवन का आदर्श और दर्शन स्पंदित होता है। सामान्य जीवन से लेकर ब्रह्मांडीय परिदृश्य लोक संस्कृति के अंग हैं। वर्तमान में विभिन्न दृष्टियों से लोक एवं जनजातीय संस्कृति और साहित्य के गहन अध्ययन और नवाचार की आवश्यकता है। 

प्रारम्भ में स्वागत भाषण और संस्था परिचय संस्था की निदेशक डॉ पल्लवी किशन ने दिया। अतिथि स्वागत सचिव कुमार किशन, डॉ पल्लवी किशन, डॉ पुष्पा चौरसिया, श्रीमती शीला व्यास, डॉ अनीता चौधरी, भूषण जैन, अजय मेहता, रवींद्र देवलेकर आदि ने किया।  

इस अवसर पर डॉ चिंतामणि उपाध्याय एवं डॉ भगवती लाल राजपुरोहित की पुस्तक मालवी दोहे,  डॉ पूरन सहगल की पुस्तक बअणभौ वाणी एवं डॉ सन्ध्या जैन की शोध कृति अत्विका की प्रस्तुति अतिथियों द्वारा की गई। 

विभिन्न सत्रों का संचालन मुख्य समन्वयक डॉ जगदीश चंद्र शर्मा एवं डॉ राम सौराष्ट्रीय ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ सदानन्द त्रिपाठी, डॉ युगेश द्विवेदी गुजरात एवं मोहन तोमर ने किया।  

उत्कृष्ट शोध आलेख के लिए दस शोधकर्ताओं को सम्मानित किया गया

प्रथम दिवस पर आयोजित शोध संगोष्ठी सत्रों की अध्यक्षता डॉ शिव चौरसिया एवं डॉ पूरन सहगल ने की। विशिष्ट अतिथि श्रीमती नारायणी माया बदेका, श्रीमती अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, इंदौर, श्री नरेन्द्र सिंह पंवार, रतलाम थे। तकनीकी सत्रों में विभिन्न प्रान्तों और अंचलों की लोक परंपराओं पर शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। इस अवसर पर उत्कृष्ट शोध आलेख के लिए दस शोधकर्ताओं को सम्मानित किया गया। इनमें डॉ नवीन मेहता, सांची, निधि त्रिपाठी, महक, हरियाणा, श्रीमती अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, इंदौर, डॉ रुपाली सारये, इंदौर, मीतू चतुर्वेदी रतलाम, मधु मालवीय, कैलाशनारायण मीणा, ब्यावरा, डॉ नेत्रा रावणकर, सम्मिलित हैं। 

विभिन्न सत्रों में शोध पत्र प्रस्तुत करने वाले अध्येताओं में डॉ सन्ध्या सिंह, इंदौर, ऋतु शर्मा शुक्ला, पारस परमार, युगेश द्विवेदी, श्यामलाल चौधरी, टिंकू छेत्री, मेघालय, सुनीता जैन, शकुंतला, हरियाणा, विमल कुमार मेहता, वल्लभ विद्यानगर, अभय कुमार, वर्धा किरणबाला कराड़ा, दीपक कुमार सिंह, वर्धा, संगीता मिर्धा, डॉ रूपा भावसार आदि सम्मिलित थे। 

Comments

मध्यप्रदेश समाचार

देश समाचार

Popular posts from this blog

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पाठ और समीक्षाएँ | मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे : मध्यवर्गीय जीवन के बीच स्त्री पुरुष सम्बन्धों का रूपायन

  आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ |  Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म  8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में  हुआ। उन्होंने  पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी -  आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।   उनके उपन्यास और  कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं।  उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।  मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती ...

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा की पूरी कहानी | Khatu Shyam ji | Jai Shree Shyam | Veer Barbarik Katha |

संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा ( स्कंद्पुराणोक्त - श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !! 'श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र'' एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ' का कर्तव्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है... वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा... आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार ने श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख लिया हैं.... आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं...

दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।। आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास। सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।। भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाट...