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गहरे मानसिक अंतर्द्वंदो के कवि के रूप में मुक्तिबोध को देखा जाए - डॉ शैलेंद्र कुमार शर्मा

सरल काव्यांजलि द्वारा साठवीं  पुण्य तिथि पर 'मुक्तिबोध स्मरण' का आयोजन 

उज्जैन। 'मुक्तिबोध स्थानांतरगामी प्रवृत्ति के रचनाकार हैं।  अपनी धारा के वे खुद निर्माता थे। उन्हें हम साधारण सृजन प्रक्रिया में नहीं देख सकते। मुक्तिबोध को पढ़ना एक व्यापक परिवेश से जुड़ना है।  गहरे मानसिक अंतर्द्वंद्वों के कवि के रूप में उन्हें देखा जाना चाहिए।  प्रयोगवाद, छायावाद, प्रगतिवाद और नई कविता सबसे वे जुड़ते हैं लेकिन इनकी सीमाओं का अतिक्रमण भी करते हैं। एक नए प्रकार की सौंदर्यदृष्टि का समावेश उन्होंने  अपनी कविता के माध्यम से किया। उन्होंने जीवन के भीतर से अपनी राह खोजी।

'उक्त उदगार विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलानुशासक, ख्यात समालोचक, डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने सरल काव्यांजलि द्वारा आयोजित 'मुक्तिबोध स्मरण ' में  अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहे।

जानकारी देते हुए संस्था के राजेंद्र देवधरे  'दर्पण'  ने बताया कि इस अवसर पर मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए शिक्षाविद् डॉ. गीता नायक ने कहा मुक्तिबोध एक अच्छे आलोचक  थे। रचनाकार के लिए और आलोचक के लिए समाज सापेक्षता जरूरी है। रचनाकार समाज का चितेरा होता है मुक्तिबोध समाज के खोजी प्रवृत्ति के रचनाकार थे। 'अंधेरे में' उनकी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण ही रची गई। कविता को वे 'जीवन वहन का लालटेन' कहते थे। उनके अनुसार लेखक को जीवन भर विद्यार्थी बने रहना चाहिए। स्लेट पट्टी पास रखना चाहिए , लिखते और मिटाते रहना चाहिए। 

सन्तोष सुपेकर ने कहा कि मुक्तिबोध को अतीत कहकर कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अतीत होकर भी वर्तमान हैं और उनकी रचनाएँ वर्तमान बनकर भविष्य की पीढीयों के लिए यथार्थ की आंतरिक छानबीन कर रही हैं।आशीष श्रीवास्तव 'अश्क' ने कहा कि उनकी कविताएं दुर्बोध अवश्य थीं लेकिन जो बिम्ब और प्रतीक उन्होंने गढ़े उस तक पहुँचना भी आवश्यक  है। 

वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पुष्पा चौरसिया ने मुक्तिबोध की मशहूर कविता 'अंधेरे में'  का वाचन किया।  ख्यात व्यंग्यकार शशांक दुबे ने कहा कि उनकी कहानी उतनी ही सरल होती थी जितने वे। आम आदमी की तकलीफ उनके अंदर सदैव अंगड़ाई लेती रहती थी। रामचंद्र धर्मदासानी ने मुक्तिबोध के उज्जैन से जुड़ाव को स्मरण किया।  डॉ. देवेंद्र जोशी ने 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' कविता को सौंदर्य के प्रतिमान बदलने  की कोशिश बताया। उनकी कविताओं में उज्जैन की टीस सामने आती है। वे छायावाद और रहस्यवाद दोनों से संतुष्ट नहीं थे। वर्षा गर्ग ( मुंबई) ने मुक्तिबोध को समर्पित सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ' डेज़ा वू' का वाचन ( ऑन लाइन ) किया। वी. एस. गहलोत  'साकित उज्जैनी'  ने  'जिंदगी से लड़ते- लड़ते जिंदगी गुजरी/खामोशी के शोर सुनते जिंदगी गुजरी,    हेमंत भोपाले ने' पनघट पर पेडों के नीचे,/ बनते कुछ महीन से रिश्ते',प्रियम जैन ने' किसी में गुरुर है कोई मगरूर है।' रचनाओं का पाठ किया।  ख्यात कवि सुगनचन्द्र जैन ने मुक्तिबोध को अपनी  कविता द्वारा श्रद्धांजलि दी। 

प्रारम्भ में सरस्वती वंदना श्रीमती माया बधेका ने प्रस्तुत की, अतिथि स्वागत  अध्यक्ष डॉ संजय नागर और नितिन पोल ने किया। सितम्बर माह के जन्म दिवस वाले सदस्यों- श्रीमती माया बधेका, हेमंत भोपाले और  डॉ. संजय नागर का स्वागत हुआ। संस्था की परंपरानुसार सरलजी की कविता का वाचन डॉ. नेत्रा रावणकर ने किया। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने पर सन्तोष सुपेकर और श्रीमती माया बधेका का स्वागत हुआ। संचालन मानसिंह शरद ने और आभार आशीष श्रीवास्तव 'अश्क' ने व्यक्त किया। अन्त में  हाल ही में दिवंगत  हुए  ख्यात साहित्यकार  डॉ. हरीश प्रधान को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।

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