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पंचकेदार (पाँच केदार) हिन्दुओं के पाँच शिव मंदिरों का सामूहिक नाम है, जानिए कहा है स्थित पंचकेदार और इनसे जुड़ी कुछ किंवदन्तियों के बारे में


पंचकेदार (पाँच केदार) हिन्दुओं के पाँच शिव मंदिरों का सामूहिक नाम है। ये मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित हैं। इन मन्दिरों से जुड़ी कुछ किंवदन्तियाँ हैं जिनके अनुसार इन मन्दिरों का निर्माण पाण्दवों ने किया था।
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भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे अंतरध्यान होकर केदार में जा बसे। पांडव उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच गए। भगवान शंकर ने बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं के बीच चले गए। पांडवों को संदेह हुआ तो भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर लिया। भीम ने दो पहाड़ों पर पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए पर भगवान शंकर रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बैल पर झपटे तो बैल भूमि में अंतरध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।
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माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतरध्यान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुईं। इसलिए इन चार स्थानों के साथ केदारनाथ धाम को पंचकेदार कहा जाता है।
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1 केदारनाथ धाम

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समुद्र की सतह से करीब साढ़े 12 हजार फीट की ऊंचाई पर केदारनाथ मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। बारह ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ धाम का सर्वोच्य स्थान है। साथ ही यह पंच केदार में से एक है। केदारनाथ धाम में भगवान शिव के पृष्ट भाग के दर्शन होते हैं। त्रिकोणात्मक स्वरूप में यहां पर भगवान का विग्रह है। केदार का अर्थ दलदल है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली के मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण पांडवों ने कराया था। जबकि आदि शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर की विशेषता यह है कि 2013 की भीषण आपदा में भी मंदिर को आंच तक नहीं पहुंची थी। मंदिर के कपाट अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलते हैं।

2 मद्महेश्वर मंदिर

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मद्महेश्वर मंदिर बारह हजार फीट की ऊंचाई पर चौखंभा शिखर की तलहटी में स्थित है। मद्महेश्वर द्वितीय केदार है, यहां भगवान शंकर के मध्य भाग के दर्शन होते है। दक्षिण भारत के शेव पुजारी केदारनाथ की तरह यहां भी पूजा करते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता है कि यहां का जल पवित्र है। इसकी कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए पर्याप्त हैं। शीतकाल में छह माह यहां पर भी कपाट बंद होते हैं। कपाट खुलने पर यहां पूजा अर्चना होती है।

3 तुंगनाथ मंदिर

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तुंगनाथ भारत का सबसे ऊंचाई पर स्थित मंदिर है। तृतीय केदार के रूप में प्रसिद्ध तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से 3680 मीटर की ऊंचाई पर है। यहां भगवान शिव की भूजा के रूप में आराधना होती है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से निर्मित यह मंदिर बहुत रमणीक स्थल पर निर्मित है। कथाओं के अनुसार, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर को 1000 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। मक्कूमठ के मैठाणी ब्राह्मण यहां के पुजारी होते हैं। शीतकाल में यहां भी छह माह कपाट बंद होते हैं। शीतकाल के दौरान मक्कूमठ में भगवान तुंगनाथ की पूजा होती है।

4 रुद्रनाथ मंदिर

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चतुर्थ केदार के रूप में भगवान रुद्रनाथ विख्यात हैं। यह मंदिर समुद्र तल से 2286 मीटर की ऊंचाई पर एक गुफा में स्थित है। बुग्यालों के बीच गुफा में भगवान शिव के मुखर विंद अर्थात चेहरे के दर्शन में होते हैं। भारत में यह अकेला स्थान है, जहां भगवान शिव के चेहरे की पूजा होती है। एकानन के रूप में रुद्रनाथ में, चतुरानन के रूप में पशुपति नेपाल में पंचानन विग्रह के रूप में इंडोनेशिया में भगवानशिव के दर्शन होते हैं। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दमुक गांव से गुजरता है, लेकिन बेहद दुर्गम होने के कारण श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। इसलिए ज्यादातर श्रद्धालु गोपेश्वर के निकट सगर गांव से यहां के लिए यात्रा शुरू करते हैं। शीतकाल में रुद्रनाथ मंदिर के भी कपाट बंद रहते हैं। इस दौरान गोपेश्वर में भगवान रुद्रनाथ की पूजा-अर्चना की जाती है।

5 कल्पेश्वर मंदिर

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पंचम केदार के रूप में कल्पेश्वर मंदिर विख्यात हैं। इसे कल्पनाथ नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान की जटा के दर्शन होते हैं, बारहों महीने यहां भगवान शिव के दर्शन होते है। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे घोर तपस्या की थी। तभी से यह स्थान ‘कल्पेश्वर या ‘कल्पनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अन्य कथा के अनुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायणस्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था। 2134 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मंदिर तक पहुंचने के लिए 10 किमी पैदल चलना होता है। यहां श्रद्धालु भगवान शिव की जटा जैसी प्रतीत होने वाली चट्टान तक पहुचते हैं। गर्भगृह का रास्ता एक गुफा से होकर जाता है। कल्पेश्वर मंदिर के कपाट सालभर खुले रहते हैं।

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