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योग - देवता बनने का मार्ग

योग को हम केवल आसन-प्राणायाम के रूप में जानते हैं। हम योग के विषय में केवल इतना ही जानते हैं कि आसन एवं प्राणायाम द्वारा हम अपने शरीर एवं मन को स्वस्थ रखते हैं। वास्तव में योग इंद्रियों एवं मन पर पूर्ण नियंत्रण की विद्या है। जब तक व्यक्ति का मन अस्थिर होता है वह शांति नहीं पाता। मनुष्य अस्थिर मन की स्थिति में यह सोच ही नहीं पाता कि वह स्वस्थ है या नहीं, खुश है या नहीं, सुखी है या नहीं। अत: योग वह मार्ग है जो क्रमश: शरीर, इंद्रिय एवं मन पर नियंत्रण की ओर अग्रसर करता है।

हम सामान्य बोलचाल की भाषा में कहते हैं हम योग करते हैं वस्तुत: आप योग नहीं करते क्योंकि योग का अर्थ भगवत गीता में कार्य में कुशलता है एवं समस्त दुखों से निवृत्त हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने मन को पूर्ण रूप से नियंत्रित करना योग कहा है। हम योग के अंग केवल आसन एवं प्राणायाम करते हैं वह भी कुशलता से नहीं करते क्योंकि यदि आप पूर्ण कुशलता से आसन एवं प्राणायाम ही करने लगेंगे तो हम सभी रोगों एवं सभी दुखों से काफी हद तक मुक्त हो जाएंगे।

योग का अर्थ हमारी जैविक शक्ति अर्थात् आत्मा का ईश्वरीय शक्ति या ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के साथ एकत्व स्थापित कर लेना है। अर्थात् योग का परम लक्ष्य हमारी आत्मा रूपी ऊर्जा का ब्रह्माण्ड की ऊर्जा या पंचमहाभूतों के साथ मिल जाना है। आत्मा को शरीर से स्वैच्छिक रूप से पृथक् कर उसे ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के संयुक्त करा लेना ही योग है एवं ऐसा कर पाने वाला व्यक्ति योगी है या ईश्वर है।

क्योंकि जो व्यक्ति अपनी आत्मा का ब्रह्माण्ड की ऊर्जा या पंचमहाभूतों से संयोग करा लेता है वह कुछ भी कर सकता है क्योंकि उसका पंचमहाभूतों पर नियंत्रण है अत: वह कभी पर्वत समान विशाल या भारी हो सकता है कभी आकाश के समान अनंत, कभी समुद्र को सुखा सकता है और कभी रेगिस्तान को समुद्र बना सकता है। पंचमहाभूतों पर नियंत्रण होने से योगी किसी भी कार्य में सक्षम हो जाता है क्योंकि इस ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएँ या प्राणी पंचमहाभूतों से ही निर्मित है।

इस प्रकार योग देवता बनने का मार्ग है और योग केवल आसन-प्राणायाम नहीं है। योग के 8 अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, घारणा, ध्यान, समाधि। योग के इन 8 अंगों को क्रमश: पालन करते हुए समाधि तत्व की प्राप्ति होती है और मनुष्य देवता भी बन सकता है। यह एक अत्यन्त कठिन मार्ग है।

यम के द्वारा मानसिक शुद्धि की जाती है जैसे हिंसा न करना, हमेशा सच बोलना, चोरी न करना, मैथुन पर पूर्ण नियंत्रण एवं किसी भी वस्तु का संचय अनावश्यक रूप से न करना।

नियम के द्वारा शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की जाती है जैसे शरीर एवं मन को स्वच्छ रखना, हमेशा संतुष्ट रहना, बुरी आदतों को छोड़ने एवं अच्छी आदतों को अपनाने का कठिन परिश्रम अर्थात् तप करना, महापुरुषों के ग्रंथों को पढ़ना एवं उनका अनुसरण करना एवं स्वयं को पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित कर देना।

यम एवं नियम के पालन के द्वारा आसनें के अभ्यास से शरीर दृढ़ हो जाता है। अर्थात् शरीर अत्यंत बलवान हो जाता है ऐसा व्यक्ति आसानी से रोगों से ग्रसित नहीं होता।

आसन के बाद प्राणायाम के अभ्यास से शरीर एवं मन में अत्यंत हल्कापन अनुभव होता है। प्राणायाम से व्यक्ति अत्यंत ज्ञानी हो जाता है। प्राणायाम से मन में धारणा की योग्यता भी आ जाती है अर्थात् मन कहीं भी आसानी से स्थिर किया जा सकता है।

प्राणायाम के बाद प्रत्याहार से मनुष्य अत्यंत धैर्ययुक्त हो जाता है। इंद्रियां पर नियंत्रण करना प्रत्याहार है। इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाने से मन भी नियंत्रित होने लगता है।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि में अभ्यस्त हो जाने पर योग के 6 अंग धारणा का अभ्यास किया जाता है। किसी भी सुखपूर्वक स्थिति में बैठकर अपने शरीर के भीतर किसी अंग या बाह्य सांसारिक किसी भी वस्तु में ध्यान केन्द्रित करना धारणा कहलाता है।

धारणा के पश्चात् ध्यान का अभ्यास किया जाता है। ध्यान हेतु किसी भी सुखपूर्वक स्थिति में बैठकर मन को किसी भी एक जगह स्थिर किया जाता है। मन का किसी एक वस्तु पर काफी देर तक स्थिर हो जाना ध्यान है।

ध्यान के पश्चात योग की अंतिम अवस्था समाधि होती है। जब योगी निरंतर अभ्यास से यम से लेकर ध्यान तक की अवस्था में अत्यन्त निपुण हो जाता है तब समाधि का अभ्यास किया जाता है। जब ध्यान में केवल ध्येय की ही प्रतीति होती है और मन का स्वरूप शून्य हो जाता है अर्थात् योगी को ध्येय से भिन्न स्वयं का ज्ञान भी नहीं रह जाता, तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। समाधि की स्थिति में ही योगी अपनी आत्मा को शरीर से पृथक करने की क्षमतायुक्त हो जाता है।

इस प्रकार योग के 8 अंगों के द्वारा शरीर एवं मन पर पूर्ण नियंत्रण कर अंतत: अपनी आत्मा को शरीर से पृथक करना योग है।

अत: योग वास्तव में देवता बनने का मार्ग है। क्या वह मनुष्य जो सदैव झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, हिंसा नहीं करता, शरीर एवं मन से पूर्ण शुद्ध हो, किसी भी वस्तु का संचय नहीं करता चाहे वह वस्तु उसके उपयोग की भी हो, कठोर तप करता है, बलवान शरीर युक्त हो, ज्ञानी हो, धैर्यशील हो साथ ही जहाँ भी ध्यान केन्द्रित करता हो वहाँ का ज्ञान कर लेता है अर्थात् देश, विदेश कहीं की बातें भी जान लेता है। आपके मन की बातें जान लेता है। किसी की मदद हेतु आत्मा को पृथक कर किसी भी शरीर में प्रविष्ट कराने की क्षमता युक्त हो।

अत: योग केवल आसन-प्राणायाम नहीं वास्तव में सुखों की उच्चतम अवस्था प्राप्ति का मार्ग या देवता बनने का मार्ग है।

डॉ. निरंजन सराफ

असिस्टेंट प्रोफेसर

शासकीय धन्वन्तरि आयुर्वेद महाविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)

मो. 9479852794

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