Skip to main content

भारतीय लोक संस्कृति कभी न समाप्त होने वाली संस्कृति है

विक्रम विश्वविद्यालय में लोक की अवधारणा और स्वरूप पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न 

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिंदी अध्ययनशाला, पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला तथा गांधी अध्ययन केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में लोक की अवधारणा और स्वरूप पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जबलपुर के प्रो रंगनाथ शुक्ल थे। अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने की। इस अवसर पर विक्रम विश्वविद्यालय के कला संकायाध्यक्ष प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा, प्रो गीता नायक, प्रो प्रेमलता चुटैल, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, डॉ प्रतिभा सक्सेना,  इंदौर आदि ने अपने विचार प्रस्तुत किए।

मुख्य अतिथि प्रो रंगनाथ शुक्ल, जबलपुर ने अपने व्याख्यान में कहा कि भारतीय लोक संस्कृति कभी न समाप्त होने वाली संस्कृति है। भारत की लोक संस्कृति  अनेकता में एकता को प्रत्यक्ष  करती है। वर्तमान समय में लोक साहित्य और संस्कृति की व्यापकता को देखने की आवश्यकता है। भारतीय लोक संस्कृति में सामाजिकता और आध्यात्मिकता के प्रति सजगता दिखाई देती है।

अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने कहा कि युवा पीढ़ी भारतीय लोक संस्कृति के विभिन्न पक्षों से जुड़े शोध कार्य के लिए आगे आएँ। आधुनिकता की चकाचौंध के कारण हम अपनी लोक संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। विवाह जैसा महत्वपूर्ण संस्कार शोरगुल में डूब रहा है। हमारे लोक संगीत में अपार क्षमता है। शैक्षिक समुदाय और साहित्यकारों का दायित्व है कि वे लोक संस्कृति के महत्वपूर्ण पक्षों को नई पीढ़ी में हस्तांतरित करने के लिए प्रयास करें। वर्तमान लोक संगीत के दस्तावेजीकरण के लिए भी पर्याप्त प्रयास आवश्यक हैं। 

कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि लोक की संज्ञा अत्यंत व्यापक और असीम है। लोक एवं जनजातीय साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा कभी सूखती नहीं है। लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। भारतीय लोक का आशय पश्चिम के फोक की तर्ज पर असंस्कृत, अविकसित या रूढ़िग्रस्त जनसमूह नहीं है, उसका अपना वैशिष्ट्य है। भारत में लोक परम्परा कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत या पुरातन नहीं है, वह सतत वर्तमान है। हमारे जीवन का हिस्सा है। आज लोक-साहित्य और संस्कृति को सामाजिक और ऐतिहासिक विज्ञान के रूप में देखने की आवश्यकता है।

कार्यक्रम में प्रो रंगनाथ शुक्ल,  जबलपुर को अतिथियों द्वारा साहित्य शॉल एवं पुष्प अर्पित कर उनका सारस्वत सम्मान किया गया। इस अवसर पर डॉ प्रतिष्ठा शर्मा, डॉ विश्वजीतसिंह परमार, डॉ अजय शर्मा, श्रीमती हीना तिवारी आदि शिक्षक, शोधार्थी एवं विद्यार्थी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

कार्यक्रम का संचालन डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ प्रतिभा सक्सेना, इंदौर ने किया।

Comments

मध्यप्रदेश समाचार

देश समाचार

Popular posts from this blog

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा की पूरी कहानी | Khatu Shyam ji | Jai Shree Shyam | Veer Barbarik Katha |

संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा ( स्कंद्पुराणोक्त - श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !! 'श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र'' एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ' का कर्तव्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है... वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा... आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार ने श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख लिया हैं.... आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं...

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पाठ और समीक्षाएँ | मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे : मध्यवर्गीय जीवन के बीच स्त्री पुरुष सम्बन्धों का रूपायन

  आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ |  Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म  8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में  हुआ। उन्होंने  पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी -  आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।   उनके उपन्यास और  कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं।  उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।  मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती ...

दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।। आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास। सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।। भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाट...