सुरेशचन्द्र शुक्ल की कहानी लाश के वास्ते प्रेमचंद की कफ़न की परंपरा की रचना है - प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा
नार्वे से डिजिटल संगोष्ठी में प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक की कहानी का पाठ, समीक्षा और अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन संपन्न
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम और स्पाइल-दर्पण पत्रिका के संयुक्त तत्वाधान में डिजिटल संगोष्ठी में सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' की कहानी लाश के वास्ते का पाठ, समीक्षा और अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा, विशिष्ट अतिथि डॉ. दीपक पाण्डेय, नई दिल्ली थे। अध्यक्षता डॉ. कुंअर वीर सिंह मार्तण्ड, कोलकाता एवं संचालन श्रीमती सुवर्णा जाधव, पुणे ने किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि कला संकायाध्यक्ष एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने कहा कि सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' की कहानी प्रेमचंद की कहानी कफ़न की परम्परा की कहानी है। दशकों पहले प्रेमचंद ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की थी कि अभाव और संघर्ष का जीवन जीने वालों के सामने मृत देह के लिए भी अंतिम क्रिया कर्म की चुनौती रही है। वे लोगों और समाज की ओर देखते हैं। यह कहानी प्रेमचंद की परंपरा की होने के बावजूद नया भी जोड़ती है। जिस पृष्ठभूमि और परिवेश के साथ रचनाकार ने इस कहानी को बुना है, वह वर्तमान सन्दर्भ में भी प्रासांगिक है।
उन्होंने आगे कहा कि अभी हम लोग आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। अनेक शहीदों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें आजादी दिलायी है। हम सभी का यह दायित्व बनता है कि उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले परिवारजनों को इस प्रकार का सम्मान और सुविधा दें कि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। लाश के वास्ते जिन्दा शहीदों के बारे में सार्थक टिप्पणी है। क्योंकि ये लोग ज़िंदा तो हैं, लेकिन उन्होंने शहादत भी दी है; अपना तन-मन-धन सब कुछ अर्पित कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम में इन पर बहुत अत्याचार किये गए। इनकी भूमि-जायजाद सब कुछ छीन ली गयी। हमारा दायित्व है कि आसपास जो ज़िंदा शहीद हैं, स्वतंत्रता सेनानी हैं, हम उनके अवदान को याद करें, उन्हें गहरा सम्मान तो दें ही।
डॉ. हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने कहा कि कहानी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कहानी है। मामूली पात्र नहीं है। वैद्य जी कहानी में कहते हैं कि सरदार भगत सिंह को शहीद होने पर सम्मान मिल गया, पर उनके पिताजी को नहीं मिला, क्योंकि वह जीवित रहे। इस कहानी में टायरसोल चप्पल का जिक्र है जो उस समय प्रचलित थी। डॉ. कुंअर वीर सिंह मार्तण्ड, कोलकाता सहित अनेक लोगों ने कहा कि कहानी का शीर्षक बहुत आकर्षक है। अचानक जिज्ञासा हो जाती है कि क्या हुआ लाश को? कहानी जब पढ़ते हैं लगा कि जैसे कहानी संस्मरणात्मक हो। लेखक ने ऐसा चित्र खींचा कि जैसे आँखों देखा हाल हो। उन्होंने देखा है कि मयूर (मोर) मर जाता है तो उसके लिए चंदा होता है, उसकी तेरहवीं होती है। समाज में अब कुत्ता और बिल्ली का भी संस्कार करते हैं।
विदेशों से अमेरिका से डॉ. राम बाबू गौतम, कनाडा से श्रीमती निर्मल जसवाल, स्वीडेन से सुरेश पांडेय और नार्वे से सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' थे। विदेश से शुभकामनाएं देने वालों में भारतीय दूतावास ओस्लो के इन्दर जीत, डेनमार्क से चिरंजीवी देशबंधु, कनाडा से नीरजा शुक्ला, नार्वे से गुरु शर्मा और माया भारती और गुरु शर्मा थे, ब्रिटेन से जय वर्मा आदि। भारत से शुभकामनायें देने वालों में चेन्नई से डॉ. सविता सिंह, उज्जैन से डॉ. प्रीति शर्मा, दिल्ली से साहित्य संचयन फाउंडेशन के मनोज कुमार, संजय धौलपुरिया, सोनू कुमार अशोक और प्रमिला कौशिक आदि प्रमुख थे।
कार्यक्रम का शुभारम्भ वाणी वंदना से अनुराग अतुल ने किया। तकनीकी सहयोग दिया अनुराग शुक्ल (नार्वे) ने। डॉ. पूर्णिमा कौशिक ने चित्रात्मक सहयोग दिया।
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