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एक निरापद और पर्यावरणीय औषधि : निर्गुण्डी

परिचय : प्रदूषण आज की ज्वलंत समस्या बन चुका है। प्रदूषण के वर्तमान व दूरगामी परिणाम स्पष्टत: परिलक्षित होने लगे हैं। इसका प्रमाण मानव जीवन पर निश्चित रूप से पड़ता है। इस समस्या के समाधान के रूप में वैयक्तिक आधार पर आवास स्थान में रिक्त भूमि पर एवं फेसिंग हेतु औषधियुक्त पौधारोपण करना युक्तियुक्त होगा।

इस तारतम्य में निर्गुण्डी एक निरापद एवं पर्यावरणीय औषधि तो है ही साथ ही इसका प्रमुख गुण सर्वभौमिकता है अर्थात् यह सर्वत्र उपलब्ध हो सकती है। निर्गुण्डी हर प्रकार की भूमि पर अधिरोपित की जा सकती है। विभिन्न प्रकार के रोगों में समुचित विशिष्ट एवं तुरन्त कारगर होने के कारण घरेलू औषधि के रूप में निर्गुण्डी का अलग महत्व है।

निर्गुण्डी का महत्व :

'सिन्दुवार:श्वेतपुष्प:सिन्दुक:सिन्दुवारक:।

नीलपुष्पी तु निर्गुण्डी शेफाली सुबहा च सा।।

सिन्दुक:स्मृतिदस्तिक्त:कषाय:कटुकोलघु:।

केश्यो नेत्रहितो हन्ति शूल शोथाम मारूतान्।।

कृमिकुष्ठारू चिश्लेघ्मव्रणाग्नीला हि तद्धिधा।

सिन्दुवारदलं जन्मुवातश्लेष्महरं लघु।।

(भावप्रकाश निघन्टु)

निर्गुण्डी भूरी मिट्टी व पथरीली जगह पर आसानी से उगाई जा सकती है। यह समस्त भारत वर्ष में तथा उष्ण प्रदेशों में सर्वत्र पाई जाती है। इसे हम घर में फेंसिंग की जगह आसानी से लगाकर घर की शोभा बढ़ा सकते हैं। यह पर्यावरण में उपयोगी व महत्वपूर्ण औषधि है। क्योंकि इसके पत्र में सुगंधित उड़नशील तेल और राल होती है। फल में अम्ल, राल, कषाय, कार्बनिक सेवाम्ल एक क्षार तत्व व रंग होता है यह औषधि विशेषत: कृमिघ्न और विभिन्न है। यदि पौधारोपण करने के पश्चात् पौधा रोग ग्रस्त हो जाए तो विडंग व दूध मिश्रित जल का सिंचन करना चाहिए।

द्रव्य परिचय : नामकरण एवं प्रसिद्धि संस्कृत में इस औषध को निर्गुण्डी क्यों कहा गया?

'निर्गुडति शरीरं रक्षति रोगेभ्या:Ó

अर्थात् जो रोगों से शरीर की रक्षा करें। क्योंकि वह निरापद औषधि है इसलिए इसे निर्गुण्डी नाम दिया है।

लैटिन नाम : वाइटेक्स निर्गुण्डी

संस्कृत नाम : निर्गुण्डी

हिन्दी नाम : संभालू

अंग्रेजी : फाइव लीव्ड चेस्ट

निर्गुण्डी का स्वरूप : यह उग्रगंर्धी गुल्म जातीय वनस्पति है, इसका पौधा झाड़ीदार ६-१२ फीट ऊँचा सूक्ष्म रोगों से आवृत्त होता है। पत्र-अरहर के समान खण्डित या अखण्डित मृसण रोमयुक्त होते हैं। एक वृत्त पर तीन या पांच पत्रक २ से ६ इंच लंबे और १/२ से १-१/२ इंच चौड़े भालाकार लम्बाग्र होते हैं। पत्रक सदृन्तक होते हैं। फल गोलाकार १२ इंच व्यास के पकने पर कृष्णवर्ण के होते हैं।

जाति : १ नीलपुष्पी

२ श्वेतपुष्पी

गुणधर्म : गुण : लघु रूक्ष

विपाक : कटु

रस : कटु तिक्त

वीर्य : उष्णवीर्य

आयुर्वेद मतानुसार निर्गुण्डी कटु, तिक्त, हल्की उष्ण वीर्य, दीपन, वातनाशक, वेदनाशामक कुष्टघ्न, व्रणरोपक, व्रणशोधक, कफ: निसारक, शोथघ्व, ज्वरनाशक पर्यायिक ज्वरों को रोकने वाली कफनाशक मूत्रक, आर्तव प्रवर्तक कृमिनाशक जन्तुघ्न, मन्जातन्तु को शक्ति देने वाली बलवर्धक व परम रसायन है।

औषधि प्रयोग

पत्र :- शिरशूल, अण्डशोथ, संधिशोथ, आमवात आदि शोथ वेदना प्रधान रोगों में इसके पत्र को गरम करके बांधते या उपनाह देते हैं।

क्वाथ :- गर्भाशय शोथ, पव्वाशय शूल, वृषणशोथ, गुदशोथ आदि में इसके क्वाथ से कटि स्नान कराते हैं। कंठशूल व मुखपाक में इसके क्वाथ से गण्टूष कराते हैं।

धूपन :- शुष्कपत्रों के धूपन से शिर:शूल तथा प्रतिश्याय शांत होते हैं।

तेल :- इसके सिद्ध तैल का व्रणों में, पालित्य रोग में प्रयोग करते हैं।

औषध मात्रा :- स्वरस- १ से २ तोला

पत्र चूर्ण :- ३ से ६ ग्राम

मूल चूर्ण :- १ से ३ ग्राम

बीज चूर्ण :- १ से ३ ग्राम

प्रयोष्य अंग :- पंचांग प्रयोग होता है।

निर्गुण्डी का अहितकर प्रभाव :- इसके अतियोग से दाह एवं पैतिक विकार उत्पन्न होते हैं।

अहित प्रभाव के निवारण के लिये बबूल का गोंद एवम् कवीर्य का प्रयोग करते हैं।

विभिन्न रोगों में निर्गुण्डी का घरेलू उपयोग -

शीघ्र प्रसवार्थ :- इसकी जड़ को स्त्री की प्रसवकाल अवस्था में कमर में बांधे तो शीघ्र ही प्रसव हो जाता है। लेकिन प्रसव होने पर जड़ को तुरंत खोल देना चाहिए।

मूल का प्रयोग :- नाडी व्रण में मूल चूर्ण को घृत और शहद के साथ मिलाकर लगाना चाहिए तो नाड़ी व्रण भर जाता है एवं गण्डमाला में मूल को जल के साथ पीसकर नस्य देने का विधान बताया गया है।

बीज का प्रयोग :- अत्यधिक कामातुर पुरुष को संभोग की इच्छा कम करने के लिए सिरके के साथ खिलाते हैं या इसका क्वाथ पिलाना चाहिए।

पुष्प का प्रयोग :- निर्गुण्डी के पुष्प को शहद के साथ देने से प्रसूता के सूतिका ज्वर में होने वाला गर्भाशय, संकुचन दूर होकर अवरुद्ध रक्त निकलने लगता है। समस्त शोथ उतरकर गर्भाशय अपनी स्थिति में आ जाता है।

पुष्प नक्षत्र में इसकी जड़ की छाल को उतारकर एक तोला की मात्रा में पाच तोला बकरी के दूध के साथ 6 माह तक सेवन करने से दीर्घायु जीवन प्राप्त होता है।

पत्र का प्रयोग-

नासा रोग :- इसके पत्ते का स्वरस पिलाने से तथा पत्ते के सेंक करने से पूर्णत: आराम हो जाता है।

कर्ण स्राव :- इसके स्वरस से सिद्ध किए गए तेल को शहद के साथ कान में डालने से कर्ण स्राव में आराम हो जाता है।

कफ ज्वर व फेफड़ों की सूजन :- निर्गुण्डी स्वरस अथवा पत्तों के क्वाथ को पिपरी के साथ दिया जाता है तथा इसके पत्तों का सेंक करना चाहिए।

खांसी, दमा व क्षय रोग में :- निर्गुण्डी के पत्ते का स्वरस एक बर्तन में डालकर हल्की आंच से पकाना चाहिए जब वह गुड़ की चाशनी के समान गाढ़ा हो जाए। तब इसको उतार लेना चाहिए। दमा, खांसी व क्षय रोगी के लिए वमन विरेचन इत्यादि पंचकर्मों से शरीर शुद्ध करके इस अवलेह को सात दिन तक सेवन कराना चाहिए। इसके सेवन से मुख, नाक, आंख एवं कान के रास्ते से रोग उत्पादक जन्तु निकल जाते हैं। इसके सात दिन के सेवन से खांसी, क्षय रोग में लाभ मिल जाता है। तीन माह तक सेवन करने से वृद्धावस्था दूर होकर दीर्घायु प्राप्त होती है।

विशेष सावधानी :- पथ्य-जब तक यह प्रयोग चालू रहे तब तक अन्न व जल का त्याग करके सिर्फ दूध पर रहना चाहिए।

विशिष्ट योग :- निर्गुण्डी कल्प - इसकी जड़ का कंद के 32 तोले चूर्ण में 2 गुना शहद मिलाएं तथा घृत से चिकनी की हुई मटकी में भरकर, मुख पर शराब रखकर, संधि पर कपड़ मिट्टी कर, अनाज के ढेर में दवा देंगे। एक माह बाद निकाल कर 1 से 3 ग्राम की मात्रा में एक माह तक सेवन करने से शरीर कांतिमान तीक्ष्ण दृष्टियुक्त तथा सर्वरोग एवं पलित रोग रहित हो जाता है। एक वर्ष तक सेवन से दीर्घायु जीवन तथा प्रबल काम शक्ति प्राप्त होती है।

पथ्य :- निर्गुण्डी कल्प सेवन काल में शाक एवं अम्ल पदार्थों का त्याग करना अनिवार्य है।

इसकी जड़ या कंद का चूर्ण गोमूत्र के साथ सेवन करने से १८ प्रकार के कुष्ठ, जिस कुष्ठ की अवस्था में वात नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है। न्यूरल टाइप की लेप्रोसी में यह उपयोगी है। पामा, विचर्चिका, नाड़ी व्रण, गुल्म, शूल प्लीहा एवं उदर रोग नष्ट हो जाते हैं। उक्त चूर्ण का तक्र के साथ सेवन करने से शरीर समस्त रोग रहित, बलवान, पालित रहित एवं दिव्य रूपवान हो जाता है।

निष्कर्ष - निर्गुण्डी का विरेचन करने से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि शहरी क्षेत्र आवास स्थल के समीप रिक्त भूमि में अथवा फेंसिंग हेतु निर्गुण्डी उपयुक्त वनौषधि है। यह कृमिघ्न, जन्तुघ्न होने के कारण प्रदूषण निवारक भी है यह सहज और सर्वत्र पाई जाती है।

संदर्भ ग्रंथ -

१. भावप्रकाश निघण्टु

२. द्रव्यगुण विज्ञान

३. वनौषधि चंद्रोदय

४. निघण्टु आदर्श

५. आधुनिक द्रव्यगुण विज्ञान



-डॉ. प्रकाश जोशी

असिस्टेंट प्रोफेसर 

 शासकीय स्वशासी धन्वंतरि आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालय उज्जैन

9406606067


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