Skip to main content

'महाराष्ट्र की संत परम्परा के महानायक' विषय पर राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी सम्पन्न



 देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना की महाराष्ट्र इकाई द्वारा “महाराष्ट्र की संत परंपरा के महानायक” विषय पर राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि महाराष्ट्र के संत संपूर्ण भारत के भक्ति आंदोलन के महानायक है। महाराष्ट्र के संत यदि महानायक नहीं हुए होते तो संपूर्ण देश में भक्ति आंदोलन की लहर निर्माण नहीं हो सकती थी। महाराष्ट्र के संतों ने न केवल लोकचेतना को प्रज्वलित किया, बल्कि सम्पूर्ण भारत को राह दिखाई। महाराष्ट्र के संतों का भक्ति-दर्शन सर्वसमावेशी रहा है। 


विशिष्ट अतिथि प्राचार्य डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि संतों ने समाज को जगाने व उसे सक्षम बनाने का कार्य किया है। महाराष्ट्र की संत परंपरा में संत ज्ञानेश्वर का स्थान सर्वोपरि है। संत ज्ञानेश्वर को महाराष्ट्र में संत संतशिरोमणि, संतश्रेष्ठ या माऊली कहकर पुकारा जाता है। वारकरी संप्रदाय के संत नामदेव ने भक्ति में सगुण-निर्गुण कोई भेद नहीं किया। संत तुकाराम ने सामाजिक विकृतियों की कड़ी आलोचना की। संत तुकाराम को वर्ण, जाति, कुल पर आधारित व्यवस्था अमान्य थी। एकता और समरसता का पुरस्कार करनेवाले इन संतों ने हमेशा परोपकार किया है तथा समाज में समता की स्थापना की।   


राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के महासचिव डॉ. प्रभु चौधरी, उज्जैन ने कहा कि महाराष्ट्र वह संतों की भूमि है जहाँ संतों ने संगठनकर्ता की भूमिका निभाई। संत तुकाराम, संत नामदेव तथा संत रामदास जैसे संतों ने सामाजिक संगठन का महान कार्य किया है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संगठन का पर्याय महाराष्ट्र है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी संतों से प्रेरणा लेकर ही स्वराज्य की स्थापना की थी।    


मुख्य अतिथि श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि संतों ने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की व्यापक भावना को साकार करने हेतु समस्त संसार को सुखी बनाने का प्रण किया था। संत नामदेव ने महाराष्ट्र के बाहर भी अपनी भक्ति का परचम लहराया।    


विशिष्ट वक्ता प्रो. डॉ. अशोक गायकवाड, अहमदनगर ने कहा कि महाराष्ट्र राज्य को संतों की भूमि कहा जाता है। कई महान संतो का आविर्भाव इस पवित्र प्रदेश में हुआ है। इन महान संतों ने अपनी भक्ति और ज्ञान की धारा से इस क्षेत्र को सराबोर किया है। उन्होंने धर्म के महत्त्व को पुनर्स्थापित किया और लोगों के सुप्त आत्मसम्मान को जगाकर उन्हें एक धागे में पिरोया, जिससे वे अन्याय के विरुद्ध लड सकें। इन संतों ने समता, प्रेम, भाईचारे के साथ-साथ लोगों को भक्ति का पाठ भी पढाया। 


डॉ. उल्हास पाटील, संगमनेर ने कहा कि ‘वारकरी’ संप्रदाय केवल भक्ति संप्रदाय नहीं है, तो वह वह मुक्ति संप्रदाय है। संतों ने सड़ी हुई व्यवस्था के साथ विद्रोह किया है। 


डॉ. मंगल हांडे ने समर्थ रामदास का जीवन चरित तथा उनके विचारों को स्पष्ट करते हुए ‘मनाचे श्लोक’ का पाठ किया। 


अध्यक्ष डॉ. बाळासाहेब तोरस्कर, ठाणे, मुंबई ने कहा कि संतों ने समाज को जगाने और सक्षम बनाने का कार्य किया है। जिनका पुण्य स्मरण आज भी समाज को प्रेरणा देता है। 


संगोष्ठी की आयोजक डॉ. लता जोशी, मुंबई ने स्वागत भाषण दिया तो अतिथि परिचय प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले ने किया। सरस्वती वन्दना एवं संगोष्ठी का संचालन डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने किया। संगोष्ठी की प्रस्तावना तथा आभार प्रदर्शन डॉ. भरत शेणकर, राजुर ने किया ।


संगोष्ठी में आभासी पटल पर डॉ. अलका नाईक, डॉ. मुक्ता सहाने, डॉ. पंढरीनाथ शेळके आदि सहित अनेक अध्यापक, शिक्षाविद, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी एवं गणमान्यजन उपस्थित थे।

Comments

मध्यप्रदेश समाचार

देश समाचार

Popular posts from this blog

आधे अधूरे - मोहन राकेश : पाठ और समीक्षाएँ | मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे : मध्यवर्गीय जीवन के बीच स्त्री पुरुष सम्बन्धों का रूपायन

  आधे अधूरे - मोहन राकेश : पीडीएफ और समीक्षाएँ |  Adhe Adhure - Mohan Rakesh : pdf & Reviews मोहन राकेश और उनका आधे अधूरे - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और कथाकार मोहन राकेश का जन्म  8 जनवरी 1925 को अमृतसर, पंजाब में  हुआ। उन्होंने  पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम ए उपाधि अर्जित की थी। उनकी नाट्य त्रयी -  आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे-अधूरे भारतीय नाट्य साहित्य की उपलब्धि के रूप में मान्य हैं।   उनके उपन्यास और  कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं।  उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के महारथी थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।  मोहन राकेश की कहानियां नई कहानी को एक अपूर्व देन के रूप में स्वीकार की जाती ...

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा की पूरी कहानी | Khatu Shyam ji | Jai Shree Shyam | Veer Barbarik Katha |

संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा ( स्कंद्पुराणोक्त - श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !! 'श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र'' एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ' का कर्तव्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है... वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा... आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार ने श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख लिया हैं.... आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं...

दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात। - प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास। मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।। आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास। सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।। भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाट...