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सामाजिक रूढ़ियों और जड़ताओं से मुक्त हो रही हैं हिंदी सिनेमा की नायिकाएँ - प्रो शर्मा ; अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श पर मंथन

सामाजिक रूढ़ियों और जड़ताओं से मुक्त हो रही हैं हिंदी सिनेमा की नायिकाएँ - प्रो शर्मा

अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श पर मंथन 


हिंदी सिनेमा और स्त्री विमर्श पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन मंगलवार को क्रैडेंट टीवी  एवं राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय चौंमू, जयपुर के संयुक्त तत्त्वावधान में  किया गया। संगोष्ठी के विशेषज्ञ वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। आयोजन में मास्को, रूस से डॉ इंद्रजीत सिंह, गांधीनगर, गुजरात से प्रोफेसर संजीव दुबे एवं जयपुर से प्रोफेसर संजीव भानावत ने विषय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।

संगोष्ठी में व्याख्यान देते हुए  विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के  कला संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा  कि हिंदी फिल्में नारी सशक्तीकरण की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण माध्यम सिद्ध हो रही हैं।  फिल्मों में नायिका की विशिष्ट भूमिका यह तय करती है कि सिनेमा हमेशा महिलाओं का हितैषी रहा है। नवजागरण कालीन मूल्यों को शुरुआती दौर के सिनेकारों ने बड़ी शिद्दत से उभारा। मदर इंडिया, सुजाता, बंदिनी जैसी फिल्मों ने नारी की समर्थ भूमिका को रेखांकित किया। नारीवाद और  उदारीकरण के माहौल में हिंदी सिनेमा की नायिकाएँ सामाजिक रूढ़ियों और जड़ताओं से मुक्त होती दिखाई दे रही हैं। पिंक, क्वीन, नो वन किल्ड जेसिका, मैरीकाम, इंग्लिश विंग्लिश, गुलाब गैंग, फैशन जैसी फिल्मों के जरिए नए दौर का सिनेमा नारी अस्मिता से जुड़े मुद्दों को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। फिल्मकारों ने नारी संवेदनाओं को गहराई से समझा है और समाज के सामने प्रस्तुत किया है। सामाजिक सरोकारों के साथ हिन्दी सिनेमा के रिश्ते निरन्तर प्रश्नांकित होते रहे हैं, लेकिन अनेक पुरुष सिनेकारों के साथ स्त्री निर्देशिकाओं ने इस स्थिति को बदला है। 

राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के जनसंचार विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर संजीव भाणावत ने रंगमंच और थिएटर के शुरुआती दौर का जिक्र करते हुए  स्त्री विमर्श की शुरुआत फिल्मों में कहीं बेहतर ढंग से मानते हैं। उनका कहना था कि फिल्में नई संभावनाओं को जन्म देती हैं, नए विचारों को जन्म देती हैं। स्त्री संघर्ष, आकांक्षा, अस्तित्वबोध फिल्मों में बखूबी देखा जा सकता है।

केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात से उपस्थित प्रोफेसर संजीव दुबे ने चर्चा की शुरुआत हिंदी की पहली सवाक फ़िल्म आलमआरा से करते हुए कहा कि एक दौर में कई फिल्मों के शीर्षक स्त्री के नाम पर होते थे। हंटरवाली से शुरू हुआ यह विमर्श क्वीन, पिंक,  थप्पड़ तक आता है। उनका कहना था कि  फिल्मों का यह वातावरण न केवल स्त्री चरित्र को उठाता है अपितु नारी स्वतंत्रता व सशक्तीकरण की भूमिका भी तय करता है।


मास्को, रूस  से जुड़े जाने-माने फिल्म एवं गीत विश्लेषक डॉ इंद्रजीत सिंह ने विशेष रुप से गाइड और रजनीगंधा फिल्म की स्त्री विषयक बातों को उठाया। उन्होंने राज कपूर की फिल्मों और गीतों  के परिवेश पर दृष्टि डालते हुए रूस और भारतीय फिल्मों के अंतः सम्बन्धों को स्पष्ट किया। 


प्रारम्भ में प्राचार्य डॉ कविता गौतम ने सभी वक्ताओं का आभार व्यक्त करते हुए स्वागत किया। इस ऑनलाइन आयोजन में देश दुनिया के सैकड़ों दर्शक जुड़े। 

कार्यक्रम की संयोजिका डॉ प्रणु शुक्ला ने संगोष्ठी का संचालन किया। कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ राजेंद्र कुमार ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया।

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