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भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय भक्ति आंदोलन और गुरु जंभेश्वर जी
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 




सहस्राब्दियों से चली आ रही भारतीय संत परम्परा के विलक्षण रत्न गुरु जम्भेश्वर जी (संवत् 1508 - संवत् 1593) भारत ही नहीं, वैश्विक परिदृश्य में अपनी अनूठी पहचान रखते हैं। भारतीय भक्ति आंदोलन में उनका योगदान अद्वितीय है। उनकी वाणी न केवल सदियों से वसुधैवकुटुंबकम् की संवाहिका बनी हुई है, उसमें प्रत्येक युगानुरूप प्रासंगिकता देखी जा सकती है। गुरु जम्भेश्वर जी ने जीवन और अध्यात्म साधना के बीच के अन्तरावलम्बन को पाट दिया था और भक्ति को व्यापक जीवन मूल्यों के साथ चरितार्थ करने की राह दिखाई। कतिपय विद्वानों ने भक्ति को बाहर से आगत कहा है, आलवार  सन्तों से लेकर जंभेश्वर जी की वाणी भक्ति की अपनी जमीन से साक्षात् कराती है।











गुरु जंभेश्वर जी

 हम स्वर्ग और अपना नरक खुद बनाते हैं। कोई अलौकिक तत्व नहीं है जो इसका निर्धारक हो। अँधेरे और राक्षसी वृत्ति के साथ चलना सरल है, उनसे टकराना जटिल है। दूसरी ओर प्रकाश और अच्छाई के साथ चलना कठिन है, लेकिन वास्तविक आनन्द प्रकाश और देवत्व में ही है। जंभेश्वर जी की वाणी इसी बात को व्यापक परिप्रेक्ष्य में जीवंत करती है। वे सही अर्थों में महान युगदृष्टा थे। उन्होंने अपने समय में निर्भीकतापूर्वक समाज-सुधार का जो प्रयास किया, वह अद्वितीय है। वर्तमान युग के तथाकथित समाज सुधारक भी ऐसा साहस नहीं दिखा सकते जो जम्भेश्वर जी ने धार्मिक उन्माद से ग्रस्त तत्कालीन युग में दिखाया था। एक सच्चे युग-पुरुष की भांति उन्होंने तमाम प्रकार के परस्पर विद्वेष, अंध मान्यताओं, रूढ़ियों, अनीति-अनाचारों एवं दोषों पर प्रबल प्रहार करते हुए समाज को सही दिशा-निर्देश  किया।












प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

 

उन्होंने चराचर जगत में एक ही तत्त्व का सामरस्य देखा था। इसी के आधार पर गुरु जम्भेश्वर जी ने पारस्परिक प्रेम और सद्भाव,  पर्यावरण संरक्षण, विश्व शांति, सार्वभौमिक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा, सामाजिक जागरूकता, प्राचीन ज्ञान परम्परा की वैज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या जैसे अनेक पक्षों को गहरी संवेदना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी वाणी और मैदानी प्रयासों से साकार किया। उनका प्रसिद्ध सबद है : 

 

जा दिन तेरे होम न जाप न तप न किरिया, जाण के भागी कपिला गाई।

कूड़तणों जे करतब कीयो, नातैं  लाव न सायों। 

भूला प्राणी आल बखाणी, न जंप्यो सुर रायों। 

छंदे कहाँ तो बहुता भावै, खरतर को पतियायों। 

हिव की बेला हिव न जाग्यो, शंक रह्यो कंदरायों। 

ठाढ़ी बेला ठार न जाग्यो ताती बेला तायों। 

बिम्बे बेलां विष्णु ने जंप्यो, ताछै का चीन्हों कछु कमायों। 

अति आलसी भोला वै भूला, न चीन्हो सुररायों। 

पारब्रह्म की सुध न जाणीं, तो नागे जोग न पायो।

परशुराम के अर्थ न मूवा, ताकी निश्चै सरी न कायो।

 

उनका संकेत साफ है कि मनुष्य ने अपने कर्तव्य कर्मों को विस्मृत कर कामधेनु को दूर कर दिया है। वह अपने मूल रूप को न पहचान कर सदाचार से दूर बना रहता है। जब कभी सद्विचार मिले भी तो शंकित बना रहता है। समय बीतता रहता है, किंतु भरम में डूबा रहता है।  नासमझी में सही समय पर भक्ति के प्रवाह में न डूबकर अपना अहित ही करता है। परम सत्ता से परे केवल बाह्याचारों से कुछ मिलता नहीं है, वे तो भ्रम ही पैदा करते हैं। इसलिए परशुराम के अर्थ को पहचानना होगा, जिन्होंने समाज को सद्मार्ग पर ले जाने के लिए दृढ़ संकल्प लिया था और निभाया भी।

यह एक स्थापित तथ्य है कि गुरु जम्भेश्वर जी द्वारा प्रस्तुत वाणी और कार्य अभिनव होने के साथ ही जन मंगल का विधान करने वाले सिद्ध हुए हैं। वे मनुष्य मात्र की मुक्ति की राह दिखाते हुए कहते हैं कि ‘हिन्दू होय कै हरि क्यों न जंप्यो, कांय दहदिश दिल पसरायो’, तब उनके समक्ष जगत का  वास्तविक रूप है, जिसे जाने बिना लोग इन्द्रिय सुख में डूबे रहते हैं। इसी तरह जब वे कहते हैं कि ‘सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बन रायो’ तब उनके सामने वनस्पतियों के संरक्षण – संवर्द्धन का प्रादर्श बना हुआ है, जिसे जाने – समझे बगैर पर्यावरणीय संकटों से जूझ रही दुनिया का उद्धार सम्भव नहीं है। 



 

फेसबुक पर व्याख्यान का प्रसारण देखा जा सकता है: 


 - प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक  
विक्रम विश्वविद्यालय 
उज्जैन मध्य प्रदेश


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


 

 



(मुंबई विश्वविद्यालय, मुम्बई और जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर द्वारा आयोजित मध्यकालीन काव्य का पुनर्पाठ और जांभाणी साहित्य पर एकाग्र दो दिवसीय  अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में व्याख्यान की छबियाँ और व्याख्यान सार दिया गया है। आयोजकों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं)


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