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लघुकथा : माँ का संदूक - नीरज त्यागी


         राम और श्याम दो भाई हैं दोनों भाई बचपन से जैसे-जैसे बड़े हुए दोनों ने अपनी माँ को देखा कि अक्सर वो एक संदूक को बिल्कुल उन्ही के समान सम्हाल कर रखती है और हमेशा उनकी माँ उस पर ताला लगा कर रखी है।


        बचपन से ही दोनों बच्चों के मन में जिज्ञासा रही कि माँ आखिर संदूक में ऐसा क्या रखती है जिसे वह किसी से बताना नहीं चाहती।खैर धीरे - धीरे समय गुजरने लगा और दोनों बच्चे जो कल तक छोटे थे वह अपनी युवावस्था में पहुंच गए,लेकिन उनके मन का सवाल हमेशा की तरह वही रहा की माँ के संदूक में ऐसा क्या है जिसे वह किसी को बताना नहीं चाहती।


           कुछ समय पश्चात जब दोनों भाइयों की शादी हो गई और दोनों भाइयों के बच्चे हो गए परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि दोनों बहुओं की अपनी साँस से ना बनने के कारण बहुओं के दिमाग में भी हमेशा यही बात रहती थी कि सासू माँ ने इस संदूक में शायद बहुत सा पैसा जोड़ रखा है। जिसे वह किसी को बताना नहीं चाहती।


          राम और श्याम के बच्चे भी धीरे-धीरे बड़े होने लगे।दोनों की अपनी मां से ये तकरार हमेशा बनी रहती थी कि संदूक में क्या रखा है उन्हें दिखाए,लेकिन उनकी मां अपने दोनों बच्चों से कहती थी समय आने पर दिखा देंगी।


          धीरे-धीरे समय बीत रहा था समय के साथ अब राम और श्याम की माँ एक ऐसी उम्र पर पहुंच गई कि वह बीमार रहने लगी लेकिन हमेशा की तरह राम और श्याम की माँ अपने संदूक का पूरा ध्यान रखती थी और उस पर ताला लगा कर रखती थी।समय बीतने के साथ एक वक्त ऐसा आया कि राम और श्याम की माँ ने अपने शरीर का त्याग कर दिया और स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।


          अब राम और श्याम को खुली छूट थी कि वह देख सके कि संदूक में ऐसा क्या है जो उनकी माँ हमेशा उनसे छिपाती थी।अभी माँ को मरे हुए 5 दिन भी नहीं हुए थे कि रात के समय दोनों बहू और दोनों बेटे मिलकर संदूक का ताला तोड़ देते हैं और देखते हैं उसमें क्या है।


          संदूक का ताला तोड़ने के बाद दोनों बच्चों की आँखे हक्का-बक्का रह जाती है।संदूक के अंदर राम और श्याम को दिखाई देता है अपना बचपन,युवावस्था और उनके बच्चों के कुछ यादें,ज्यादा कुछ खास नहीं था इस संदूक में राम और श्याम के बचपन के कपड़े कुछ फटे हुए जूते और हाथ से बुने हुए स्वेटर जो राम और श्याम ने कभी पहने होंगे।


          राम और श्याम और उनकी दोनों बहुएं आज अपने आप से नजर नहीं मिला पा रहे थे।जिस बचपन को उनकी माँ ने एक संदूक में संजो के रखा हुआ था।आज खुला संदूक दोनों को मुंह चिढ़ा रहा था दोनों नजर झुकाए संदूक की ओर देखते हुए शर्मिंदा से खड़े हुए थे।आज उन्हें महसूस हुआ कि माँ ने उनके जीवन के हर बीते हुए लम्हो को यादों के रूप में संदूक सम्हाल कर रखा हुआ था।



नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).



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