उज्जैन। रविदास पंद्रहवीं शताब्दी में जन्में एक क्रांतिजयी महाकवि थे. श्री रविदास के दोहे इनके अंतर्मन से निकली बिल्कुल मौलिक, व्यवहारिक और स्वभाविक है, जो वह सीधे-सीधे कहने में यकीन रखते थे।
आगर रोड स्थित सामाजिक न्याय परिसर में आयोजित संत शिरोमणि रविदास जी की कथा के तीसरे दिन महाराज आनंद जी ने बताया कि संत रविदास जी के दोहे ‘रविदास ब्राह्मण मति पूजियेजौ होवे गुणहीन, पूजिये चरन चंडाल के जौ होवे गुन प्रवीन.’ क्रांति के उदाहरण हैं। महाकवि रविदास की वाणियों में तत्कालीन समाज-व्यवस्था के प्रति मुखर विद्रोह का भाव प्रकट होता है। इससे पता चलता है कि वे असमानता और अमानवीयता पर आधारितवर्णवादी हिंदू समाज के ढ़ाचे को ध्वस्त कर दुखविहीन समता प्रधान समाज की स्थापना करना चाहते थे। उनके पद गुरुग्रंथ साहिब जैसे धार्मिक ग्रंथ में संकलित हैं। यह उनके पदों की प्रमाणिकता का प्रमाण है। गुरु रविदास ने कर्मकांड, वाह्मचार तथा चमत्कार का खूब मजाक उड़ाया, परंतु काल के अंतराल इन्हीं के अति उत्साही भक्तों और कुछ ब्राह्मणवादी लेखक उन्हें कई चमत्कारिक घटनाओं से जोड़कर अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगे। गुरु रविदास का विवाह कम उम्र में ही हो गया था। विवाह के कुछ दिनों के पश्चात् रविदास को एक पुत्र की भी प्राप्ति हुई, जिसका नाम विजयदास था। रविदास का प्रारंभिक जीवन पूर्णतः पारिवारिक था। कुछ दिनों के पश्चात् रविदास की पत्नी का देहांत हो गया। इस घटना के पश्चात् रविदास अब पूर्ण स्वतंत्र हो गए और घर-द्वार छोड़कर अनेक प्रदेशों के भ्रमण-यात्रा पर चल पड़े। बड़े ही समर्पित भाव से अपने पदों के द्वारा और सत्संग के माध्यम से सदियों से रूढ़ि परंपराओं में जकड़े समाज को जागृति करने का कार्य करने लगे। अपने पदों के माध्यम से समाज मे फैले मिथ्याचार बाह्माडंबर और रूढ़िवादिता पर प्रहार किया। चूंकि गुरु रविदास का अधिकांश समय भारत के विभिन्न प्रदेशों के भ्रमण में ही बीता। अतः संबंधित प्रदेशों की बोली भाषा के अनुरूप इन्हें विभिन्न नामों से ख्याति प्राप्त हुई। जैसे- पंजाब में रैदास, बंगाल में रूईदास, महाराष्ट्र में रोहिदास, राजस्थान में रायदास, गुजरात में रोहिदास अथवा रोहितास, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में रविदास।
संत शिरोमणि रविदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। मधुर एवं सहज संत शिरोमणि रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है। प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में शिरोमणि रविदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे।
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