आदरणीय श्री दिग्विजय सिंह जी और श्रीमती अमृता राय जी के साथ 6 माह की नर्मदा परिक्रमा सम्पन्न होने के आज दो वर्ष पूर्ण हो गए है।
अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप की झांकियां सिर्फ नर्मदा पथ पर ही देखी जा सकती है। हमने छह माह में जो देखा, महसूस किया और जिया वह हमारे जीवन की अनमोल धरोहर है जिसका श्रेय श्री दिग्विजय सिंह जी को जाता है।
तीन हजार किलोमीटर से अधिक की इस धर्म परिक्रमा में हम लगभग 300 परिक्रमावासी थे। यह सौभाग्य हमे कभी नही मिलता यदि श्री दिग्विजय सिंह जी नर्मदा परिक्रमा का संकल्प नही लेते। नर्मदा पथ के कांटों और पत्थरों, जंगलों और झाड़ियों, कीचड़ और रेत, बारिश, सर्दी और गर्मी को हम कदापि बर्दाश्त नही कर पाते, यदि श्री दिग्विजय सिंह जी और अमृता जी ने उनसे आत्मिक तादात्म्य स्थापित करके उन्हें अपना मित्र नही बनाया होता।
दिग्विजय सिंह जी का धर्म व्यापार नही है। एक राजनेता होते हुए भी उन्होंने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपने धर्म को कभी मंडियों में नही सजाया। आज जब आत्मज्योति के प्रतीक दीपक को, आत्मझंकार की प्रतीक घंटी को और अन्तर्निनाद के प्रतीक शंख को भी कुशल व्यापारी की तरह राजनीति की मंडी में बेचा जा रहा हो तो साधारण लोग बाहरी दीपक से अंतर्ज्योति को, बाहरी घंटी से आत्मझंकार को और बाहरी शंख से आत्मा की गूंज को भला कैसे सुन पाएंगे?
नर्मदा परिक्रमा हमारे लिए सिर्फ एक भौतिक परिक्रमा नही थी, बल्कि यह हमारे जीवन को एक नई दिशा देने का पराक्रम भी था जो श्री दिग्विजय सिंह जी के उदारचित्त होने के कारण ही इतने लोगों के लिए संभव हो सका। परिक्रमावासी उनसे इस आशा में जुड़ते गए कि समूह में होने से उनकी परिक्रमा आसानी से सम्पन्न हो जाएगी लेकिन तप तो अपना-अपना था ही।
इस परिक्रमा ने हमे न सिर्फ विषम परिस्थितियों में जीना सिखाया बल्कि लोगों ने हमारा आतिथ्य करके हमे अतिथि सत्कार भी सिखाया। नर्मदा के किनारे तपस्यारत साधुओं ने हमे अपने आश्रमों में आश्रय और भोजन देकर सिखाया कि धर्म और सेवा का कोई मोल नही होता है। नर्मदा किनारे के आदिवासी भाइयों और बहनों ने हमे अपने घरों में आश्रय और भोजन देकर सिखाया कि अपने पास बहुत थोड़ा होने पर भी दूसरों को बांटा जा सकता है बशर्ते आप मन से कंगाल न हो।
स्वयं नर्मदा भी हमे अपने आचरण से बहुत कुछ सिखाती है। अमरकंटक में हमे वह सिखाती है कि अकेले हमे अपने लक्ष्य की ओर बिना किसी की प्रतीक्षा किये अकेले चल देना चाहिए। यदि आप चलते रहे तो आपको अपने जैसे अनेक पथिक मिल जाएंगे जो आपकी शक्ति बढ़ा देंगे।
डिंडोरी में वह हमें उत्सव मनाना सिखाती है। अनेक जलधाराओं में विभक्त नर्मदा जब कल-कल छल-छल करती है तो वह हमें संगीत का बोध कराती है। हमे प्रसन्न रहने के लिए नर्मदा की भांति जीवन को संगीतमय बना लेना चाहिए।
भेड़ाघाट से होशंगाबाद के बीच हमे वह सिखाती है कि यौवन और सौंदर्य के उन्माद में आप भले ही कितना ही शोर मचा लें लेकिन तप्त भूमि भी प्यास बुझाने और दूसरों को शीतलता देने के लिए आपको शांत और शीतल होना ही पड़ेगा।
पहाड़ों और जंगलों से गुजरती हुई नर्मदा जब गुजरात जाकर समुद्र में मिलती है तो वह हमें कहती है कि हे परिक्रमावासियों आओ! जिस तरह अनेक नदियों ने नर्मदा बनने के लिए अपने अस्तित्व को मुझमे मिला दिया, जिस तरह मैंने सागर बनने के लिए अपने अस्तित्व को सागर में विलीन कर दिया इसी तरह तुम भी अपना राग, द्वेष और अहंकार छोड़कर स्वयं को परमात्मा में विलीन कर दो। तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा।
नर्मदा परिक्रमा को पूर्ण आचार-बिचार और शास्त्रसम्मत नियमों से पूरी करने वाले परिक्रमावासी आदरणीय श्री दिग्विजय सिंह जी, श्रीमती अमृता राय जी ने अपने संकल्प से अनेक लोगों का जीवन धन्य कर दिया है। उन्हें तथा इस तप के भागीदार सभी परिक्रमावासियों को मेरी ओर से हार्दिक बधाई। माँ नर्मदा सभी का कल्याण करे।
नर्मदे हर।
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