कृष्ण भक्ति काव्य : परम्परा और लोक व्याप्ति
– प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
भारतीय इतिहास का मध्ययुग भक्ति आन्दोलन के देशव्यापी प्रसार की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व रखता है। वैदिककाल से लेकर मध्यकाल के पूर्व तक आते-आते पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में भारतीय मूल्य-चिंतन परम्परा का सम्यक् विकास हो चुका था, किंतु मध्य युग में भक्ति की परम पुरुषार्थ के रूप में अवतारणा क्रांतिकारी सिद्ध हुई। मोक्ष नहीं, प्रेम परम पुरुषार्थ है- प्रेमापुमर्थो महान् के उद्घोष ने लोक जीवन को गहरे प्रभावित किया। यहाँ आकर भक्त की महिमा बढ़ने लगी और शुष्क ज्ञान की जगह भक्ति ने ले ली।
भक्ति की विविध धाराओं के बीच वैष्णव भक्ति अपने मूल स्वरूप में शास्त्रीय कम, लोकोन्मुखी अधिक है। हिन्दी एवं अन्य भाषाई प्रदेशों में लोकगीतों के जरिये इसका आगमन वल्लभाचार्य आदि आचार्यों के बहुत पहले हो चुका था। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने इसे शास्त्रसम्मत रूप अवश्य दिया, किंतु अधिकांश कृष्णभक्त कवि पहले की कृष्णपरक लोक गीत परम्परा से सम्बन्ध बनाते हुए उन्हीं गीतों को अधिक परिष्कार देने में सक्रिय थे। शास्त्र का सहारा पाकर भक्ति आन्दोलन देश के कोने-कोने तक अवश्य पहुँचा, किन्तु उसके लिए जमीन पहले से तैयार थी।
कृष्ण भक्ति काव्यधारा के उद्गम की दृष्टि से दक्षिण भारत के आळ्वार सन्तों के भक्ति काव्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भक्त कवियों का बहुत बड़ा योगदान लोकगीतों में अनुस्यूत भक्ति धारा को संस्कारित करने के साथ ही शास्त्रोक्त भक्ति को लोकव्याप्ति देने में है। अष्टछाप के कवियों में सम्मिलित सूरदास, नंददास, चतुर्भुजदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी और छीतस्वामी के साथ ही मीराँ, रसखान, नरसिंह मेहता, प्रेमानंद, चंद्रसखी, दयाराम आदि का योगदान अविस्मरणीय है। इनमें से अधिकांश कवियों ने शास्त्रीय वैष्णव भक्ति-शास्त्र से प्रेरणा अवश्य प्राप्त की, किन्तु वे लोक-धर्म और लोक-चेतना से अधिक सम्पृक्त थे। उनके चरित्र, वर्ण्य विषय, छन्द, भाषा, विचार-पद्धति आदि में शास्त्रीयता के बजाय लोक-चेतना प्रबल है। श्रीमद्भागवत महापुराण के लीलागान की पद्धति से प्रेरणा लेकर भी सूरदास, नंददास आदि का काव्य उसका अनुवाद नहीं है। इन कवियों ने उत्तर भारत के लोकधर्म से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है और अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी की हैं।
मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्यधारा और कला रूपों का प्रसार देश के विविध लोकांचलों में हुआ है। यह धारा जहाँ भी गई, वहाँ की स्थानीय रंगत से आप्लावित हो गई। फिर वह चाहे पश्चिम भारत में मालवा-राजस्थान हो या गुजरात-महाराष्ट्र अथवा पूर्व में उड़ीसा-बंगाल या सुदूर पूर्वोत्तर में असम हो या मणिपुर, उत्तर में हिमाचल-हरियाणा या ब्रजमंडल हो या दक्षिण में केरल-तमिलनाडु सभी की लोक-संस्कृति की सुवास कृष्ण भक्ति काव्य और कला रूपों में परिलक्षित होती है, वहीं कृष्ण भक्ति के प्रतिमानों ने भी विविध लोकांचलों को अपनी सुवास दे दी है। वस्तुतः कृष्ण भक्ति काव्य ने अपने ढंग से पूरे देश को सांस्कृतिक-भावात्मक ऐक्य के सूत्र में बाँधा है, जिसमें लोक-चेतना की अविस्मरणीय भूमिका देखी जा सकती है। लोक-जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो, जिसे कृष्णकाव्य और कला रूपों ने न छुआ हो या जिस पर इस धारा की अमिट छाप अंकित न हुई हो।
कृष्ण भक्ति काव्य में लोक-पर्व, व्रत और उत्सवों का जीवंत चित्रण हुआ है। इस काव्य में कृष्ण सच्चे लोकनायक के रूप में जीवन के समूचे राग-रंग, हर्ष-उल्लास में शिकरत करते नजर आते हैं। कृष्णभक्ति काव्य ने जहाँ लोक परम्परा से चले आ रहे पर्वोत्सवों को सहज-तरल अभिव्यक्ति दी है, वही किसी एक अंचल की लोक-परम्पराओं को अन्य अंचलों तक प्रसारित भी किया है। इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण देन यह भी है कि काल-प्रवाह में विस्मृत होतीं कई लोक-परम्पराएँ न सिर्फ इसमें जीवित हैं, वरन् उन्हें समय-समय पर पुनराविष्कृत करने की संभावनाएँ भी मूर्त होती रही हैं।
– प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा
आचार्य एवं अध्यक्ष
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन
मध्य प्रदेश
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